बुधवार, 27 जून 2007

आरजू -२००३

इक राह हम चले, इक राह तुम चले
बढते चले गए दो दिलों के फासले
दिल में तड़प कर रह गयी मिलाने की आरजू
इस पार हम जले उस पार तुम जले...

4 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

ये चार पंक्तियां अच्छी हैं, लेकिन उसके बाद क्या हुआ? अगर इसे विस्तार दें तो और भी अच्छा।
-रवींद्र रंजन

Rajesh Tripathi ने कहा…

सर जी शख्सियत वालो ने ही तो गोरिया को मार दिया....

Rajesh Tripathi ने कहा…

आरजू - में रवीन्द्र जी चार पंक्तियों के बाद होगा कि-
नीदें कहां से आएं बिस्तर पर करवटें हैं,
वहां तुम बदल रहे हो यहां हम बदल रहे हैं।

उन्मुक्त ने कहा…

अब मिल जाइये दिल की तड़पन समाप्त हो जायगी। स्वागत है हिन्दी चिट्ठाजगत में।