मंगलवार, 24 जून 2014

साई पर शंकराचार्य के सवाल-बवाल और हिंदुस्तान..

शिरडी के साई बाबा पर शंकराचार्य के बयान और उस पर मचे बवाल से एक सवाल सहज ही सामने आ गया है कि आज हम वैचारिक स्तर पर किस युग में जी रहे हैं...? धर्म और आस्था तो बेहद व्यक्तिगत मामला है- फिर कोई पत्थर में भगवान के दर्शन करना चाहे या साई की मूर्ति और समाधि में उसे खोजने के लिए शिरडी पहुंच जाए... इससे शंकराचार्य को आपत्ति क्यों होनी चाहिए...? आखिर शंकराचार्य क्या साबित करना चाहते हैं..? धर्मगुरु होने के नाते अगर उन्हें हिंदू धर्म की इतनी ही फिक्र है, तो फिर भला वो छुआछूत, जात-पात, आडंबरों और पाखंडों के प्रति मौन क्यों रहते हैं..? क्या वो अनभिज्ञ हैं कि आज भी जातिवाद का जहर इंसानियत को डस रहा है। धार्मिक उन्माद अमन और चैन के लिए खतरा है-लेकिन उनके बयानों ने तो उन्माद की आग में घी डालने का ही काम किया है। सवाल सिर्फ शंकराचार्य के बयान पर ही नहीं है-उनके बयान पर हुई तीखी प्रतिक्रिया पर भी है। खासतौर से शिरडी में। खुद को साई का सच्चा भक्त साबित करने के लिए कुछ लोग किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं। किसी ने शंकराचार्य के खिलाफ केस दर्ज करवा दिया है-तो कुछ लोग सड़क पर धर्मगुरु के पुतले फूंक कर अपना आक्रोश जाहिर कर रहे हैं। इन भक्तजनों से कोई पूछे ये कैसे भक्ति है भाई... अगर वो सचमुच साई को भगवान मानते हैं तो भला उनकी शिक्षाओं को क्यों भूल जाते हैं। हमने तो साईं बाबा के बारे में जितना भी पढ़ा-लिखा, सुना है-उसका तो सार यही है कि साई नर में नारायण को देखते थे। उन्होंने तो जीते-जी सबको श्रद्धा और सबूरी का पाठ पढ़ाया था... जीवनभर जाति और धर्म से ऊपर उठकर संदेश दिया था- सबका मालिक एक। सुनते हैं कि उनके रास्ते में तब भी पोंगे-पंडितों और पाखंडियों ने  खूब कांटे बिछाने की कोशिश की थी-लेकिन साई बाबा शायद अपने भक्तों की तरह 'समझदार' नहीं थे... तभी तो एफआईआर, धरने-प्रदर्शन और पुतले फूंकने जैसे प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर पाए। धर्म और आस्था के नाम पर शौर्यप्रदर्शन से दूर रहे। आज होते तो शायद आज भी दूर ही रहते... लेकिन शिरडी में चिरनिद्रा में लीन साई बाबा को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि उनके भक्तजन उनकी तरह 'कमजोर' नहीं हैं। वो ईंट का जवाब पत्थर से देना जानते हैं। पिछले दो दिनों से जवाब दे भी रहे हैं। हर एक्शन और रिएक्शन को जन-जन तक पहुंचाने में सबसे अहम भूमिका निभा रहा है भारतीय लोकतंत्र का चौथा खंभा। खासतौर से टीवी मीडिया। धर्मसंसदों के जरिए सवाल-जवाब, लानत-मलानत- बहस-मुहाबिसे- और भी न जाने क्या-क्या...आखिर जनमानस को जागरूक जो बनाना है। अब पता नहीं। या तो ये मसला भारत जैसे देश के लिए संवेदनशील है नहीं-या फिर देश की 'परिवपक्व' और 'समझदार' मीडिया इसकी संवेदनशीलता को समझने में नाकाम साबित हो रही है। सवाल फिर वही आता है जेहन में- पता नहीं हम लोग 21वीं शताब्दी में भी किस वैचारिक शून्यता के युग में जी रहे हैं।


बुधवार, 19 दिसंबर 2012

बसों में खामोशी, इंडिया गेट पर कैंडल मार्च का तमाशा!

चलती बस में गैंगरेप। देश की राजधानी दिल्ली में गैंगरेप। एक बेहद शर्मनाक और सनसनीखेज वारदात। वैसे तो रेप भले ही देश के किसी भी हिस्से में हो...किसी भी लड़की या महिला के साथ हो, अपने आप में एक घिनौना और जघन्य कृत्य है। लेकिन ज्यादातर मामले या तो पुलिस तक पहुंच ही नहीं पाते-या फिर पुलिस की फाइलों में दब जाते हैं। उनकी गूंज दिल्ली तक पहुंचना तो बहुत दूर की बात है। इस मामले ने शायद तूल इसलिए पकड़ा-क्योंकि पूरे देश को शर्मसार करने वाली ये जघन्य वारदात देश की राजधानी में हुई। मामला संसद में उठा, तब कहीं दिल्ली पुलिस को अहसास हुआ कि गैंगरेप की इस वारदात ने तो देश की राजधानी को ही कलंकित कर दिया है। दिल्ली पुलिस की लानत-मलानत शुरू हुई...देश के हर बड़े नेता ने अपने सूबे और पार्टी की सीमा की ऊपर उठकर गैंगरेप कांड की भर्त्सना की है। होनी भी चाहिए। बलात्कारियों को फांसी की सजा देने की मांग की जा रही है। होनी भी चाहिए। क्योंकि ऐसा गुनाह-ऐसी सोच-ऐसी मानसिकता किसी भी तरह से माफी के काबिल नहीं है। लेकिन पूरे देश को झकझोर देने वाले इस जघन्य कांड पर भी एक अजीब तरह की सियासत हो रही है।
जो सत्ता में बैठे हैं-वो किसी तरह अपने दामन पर लगे दाग धोने की सियासत कर रहे हैं। जो विपक्ष में बैठे हैं-वो दिल्ली पुलिस पर, दिल्ली सरकार पर, केंद्र सरकार पर हमले के बहाने सियासत कर रहे हैं। अपने गिरेबां में झांके बगैर, इस बात की परवाह किए बगैर कि जिन सूबों में उनकी पार्टी सरकार चला रही है, वहां कौन सा राम-राज कायम हो गया है। भला कौन सा सूबा ऐसा है-जहां किसी ना किसी दिन-किसी बेबस लड़की या महिला की आबरू तार-तार नहीं होती। भला कौन सी पार्टी ऐसी है-जो ये दावा कर सके कि उसके राज में महिलाएं पूरी तरह महफूज हैं। भला कौन सी सरकार ऐसी है-जो दाव कर सके कि महिलाओं की आबरू पर हाथ डालने वालों को जल्द से जल्द और सख्त से सख्त सजा दी जाती है। शायद कोई सरकार, कोई पार्टी, कोई सूबा अपने दिल पे हाथ रखकर सच बयां नहीं कर सकता है।
पिछले दो दिनों से दिल्ली में एक और तमाशा हो रहा है। मीडिया के कैमरों के सामने गुस्सा जाहिर करने का तमाशा। कभी शीला दीक्षित के घर का घेराव होता है-तो कभी इंडिया गेट पर कैंडल मार्च और नुक्कड़ नाटक होता है। लोग जोर-जोर से चीखकर बता रहे हैं कि गैंगरेप जैसा अपराध समाज पर कलंक है। सुनने में जरा कड़वा लगेगा, लेकिन मेरा मानना है कि समाज पर सबसे बड़ा कलंक तो वो लोग हैं-जो आए दिन बस, ट्रेन और बाजार में किसी लड़की, किसी महिला के साथ छेड़छाड़ के गवाह बनते हैं। वो किसी के साथ बदतमीजी होते देखते हैं-लेकिन उनका खून नहीं खौलता। कलंक वो लोग हैं-जिनके सामने प्राइवेट बसों के ड्राइवर और कंडक्टर बस में बैठी लड़कियों की परवाह किए बगैर भद्दी-भद्दी गालियां देते हैं-फब्तियां कसते हैं और वो तथाकथित सभ्य समाज से ताल्लुक रखने वाले नौजवान बेचारा बने रहते हैं-सबकुछ सुनकर भी खामोशी की चादर ओढ़े बैठे रहते हैं। ऐसी एक्टिंग करते हैं-मानों उन्होंने कुछ सुना ही नहीं है। और लड़कियां या महिलाएं तो 'बेचारी' शर्म या फिर डर के मारे कुछ बोल ही नहीं पाती। कुछ लोगों को बेचारा-बेचारी शब्द पर ऐतराज हो सकता है, लेकिन फिलहाल उनके लिए मुझे कोई और उपयुक्त शब्द सूझ नहीं रहा है। ऐसे तमाशबीन चेहरे इंडिया गेट पर पहुंचने वाली भीड़ का भी हिस्सा बनते हैं। जोर-जोर से नारे भी लगाते हैं... बलात्कारियों के लिए सजा की मांग भी करते हैं... इस समाज को बदलने का सपना भी देखते हैं। जबकि वो खुद भी जानते हैं कि समाज तो बीमार है। ये बीमारी शारीरिक नहीं है-मानसिक है। अपनी सोच, अपने रवैये-अपने नजरिये में बदलाव के बगैर समाज में बदलाव कैसे आएगा।... सौ साल में दिल्ली शहर का सिर्फ दायरा बढ़ा है--इमारतों की ऊंचाई बढ़ी है... चरित्र में तो गिरावट ही आई है। सोच तो आज भी वही सौ साल पुरानी है। बरसों पुरानी बीमारी का इलाज भला रातों-रात कैसे होगा। चार-छह लोगों को फांसी पर टांग देने से एक जघन्य अपराध में शामिल बलात्कारी तो खत्म हो जाएंगे-लेकिन वो मानसिकता खत्म कैसे होगी-जो इंसान को हैवान बना देती है।

रविवार, 15 अप्रैल 2012

फिल्म खाप के बहाने...

हाल ही में रोहतक में एक फिल्म फेस्टिवल चल रहा था। सुनते हैं कि कई अच्छी फिल्में दिखाई गईं। बदकिस्मती से मुझे वहां जाने का मौका तो नहीं मिला-हां अखबारों और फेसबुक जैसी सोशल मीडिया से जो खबरें मिलीं-उसके मुताबिक खाप फिल्म दिखाए जाने को लेकर वहां काफी विवाद छाया रहा। खाप पंचायत प्रतिनिधियों के विरोध की वजह से मामला गर्मागर्म बहस तक पहुंच गया। पंचायत प्रतिनिधियों को अपना नजरिया समझाने के लिए फिल्म खाप के डायरेक्टर अजय सिन्हा को काफी मशक्कत करनी पड़ी। फिल्म की विषय-वस्तु पर खुली चर्चा भी हुई। जाहिर पूरी चर्चा फिल्म की विषय वस्तु और खाप पंचायतों के चित्रण के इर्द-गिर्द ही घूम रही थी। लेकिन इस चर्चा की छाया में शायद ये मसला कहीं छुप गया कि फिल्म बनी कैसी है-और फिल्म बनाने वाले को खाप पंचायतों के बारे में जानकारी और समझ कितनी है।मैं ये फिल्म देखी है। मेरी राय में फिल्म खाप ऑनर किलिंग (जिसे अब हॉरर किलिंग कहा जाने लगा है) जैसे ज्वलंत मुद्दे पर आधारित जरूर है-लेकिन असलियत से कोसों दूर है। पिछले कुछ दिनों में ऑनर किलिंग यानी इज्जत के लिए कत्ल की जितनी भी वारदात हुई उनमें हरियाणा, दिल्ली या फिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसी गांव की कहानी सामने आती है।

फिल्म खाप की कहानी में भी एक गांव है-लेकिन वो गांव हरियाणा या पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों जैसा गांव नहीं है। कहानी में दिल्ली का भी जिक्र है-लेकिन वो दिल्ली देहात का भी कोई गांव नहीं है। वो पूरी तरह फिल्मी गांव है। कहानी भी फिल्मी मसालों वाली है। लड़का-लड़की ने प्यार किया-जमाना उनकी मुहब्बत का दुश्मन हो गया-शादी के सवाल पर तलवारें खिंच गई। इसमें भला क्या नया है।फिल्म बॉबी से लेकर लव स्टोरी तक ऐसी ही प्रेम कहानियां कई बार फिल्मी पर्दे पर देखी जा चुकी हैं। फिल्मी तड़के के साथ एक यंग लव स्टोरी-कॉलेज लाइफ, नाच-गाना और फिर एक्शन पैक्ड हंगामा। फर्क सिर्फ इतना है कि बॉबी जैसी फिल्मों में प्रेमी और प्रेमिका के बीच दौलत की खाई थी-और खाप के नाम पर रचे गए इस तमाशे में जाति और गोत्र की दीवार दिखाई गई है।लेकिन बगैर ये जाने कि असल जिंदगी के गांवों का सामाजिक ताना-बाना क्या होता है? बगैर ये समझे कि एक ही गांव में रहने वाले लड़के-लड़की के बीच शादी क्यों वर्जित होती है ? और बगैर ये बुनियादी जानकारी जुटाए, कि हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश या दिल्ली देहात के गांवों में एक ही गोत्र में शादी का विरोध क्यों किया जाता है?

अगर डायरेक्टर ने इन सवालों के जवाब जानने के लिए रिसर्च की होती-तो मुमकिन था कि कोई गंभीर और सार्थक फिल्म बन जाती। तब हो सकता था कि फिल्म खाप-सही मायनों में अपने नाम के साथ न्याय कर पाती। जो फिल्म  अजय  सिन्हा ने बनाई है-उसका नाम भले ही खाप है-असल में उसका खाप पंचायत या किसी पंचायती परंपरा के वास्तविक चित्रण से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसी सतही फिल्म बनाकर डायरेक्टर साहब ये दावा नहीं कर सकते हैं कि उन्होंने खाप पंचायतों पर फिल्म बनाई है। ये एक साधारण मुंबईया मसाला फिल्म है-जो किसी गांव या देहात की पृष्ठभूमि पर आधारित है।वो एक ऐसा गांव है-जहां खाप का प्रधान परंपरा और खानदान की इज्जत के नाम पर कत्ल का फरमान सुनाता है। पुलिस भी गांव के प्रधान से डरती है। हरियाणा, दिल्ली या यूपी में तो किसी गांव या खाप का प्रधान इतना पावरफुल नहीं है।डायरेक्टर ने या तो किसी से सुन लिया होगा-य़ा फिर अखबार में पढ़ लिया होगा कि खाप पंचायतें प्रेमी जोड़े की हत्या का फरमान सुनाती हैं।लेकिन असल में ऑनर किलिंग का शायद ही कोई केस ऐसा होगा-जिसमें किसी गांव या खाप की पंचायत अदालत लगाकर बैठी हो-भरी पंचायत में प्रेमी जोड़े की हत्या का फैसला हुआ हो-या फिर पंचायत में किसी प्रेमी जोड़े को सीधे फांसी पर लटका दिया गया हो।

ऑनर किलिंग के ज्यादातर मामलों में लड़के या लड़की का अपना परिवार उनकी जान का दुश्मन बन जाता है। बहाना भले ही खानदान की इज्जत का होता है-लेकिन गुस्से की असली वजह ये होती है कि आखिर घर की बेटी ने उनकी मर्जी के खिलाफ लवमैरिज की हिम्मत कैसे की। प्रेमी जोड़ों पर ऐसा गुस्सा सिर्फ गोत्र विवाद में ही नहीं-बल्कि इंटर कास्ट मैरिज करने वालों पर भी नाजिल होता है। वजह अलग-लेकिन सजा एक-सिर्फ मौत। जाहिर है ऐसी सजा सिर्फ और सिर्फ कातिलों का गैंग ही तय कर सकता है। खाप पंचायतों के प्रतिनिधि ऐसे खौफनाक फैसले नहीं ले सकते।मेरी राय खाप फिल्म का ऑनर किलिंग की मूल वजह से कोई लेना-देना नहीं है। मुझे लगता है कि डायरेक्टर ने जाति-गोत्र और सामाजिक परिवेश पर रिसर्च किए बगैर बेहद सतही फिल्म बनाई है। अजय  सिन्हा ने ये तक जानने की कोशिश नहीं कि 'खाप' किसी गांव की पंचायत नहीं होती-बल्कि खाप का दायरा बेहद विस्तृत होता है। वैसे भी खाप की पंचायतों में एक ही गांव के चार-पांच लोग बैठकर फैसले नहीं लेते- अगर  अजय  सिन्हा या उनकी प्रोडक्शन टीम ने किसी खाप पंचायत का आयोजन देख लिया होता-तो फिल्म में थोड़ी बहुत गंभीरता और गहराई आ जाती। एक दर्शक के नाते मेरी व्यक्तिगत राय है कि इस फिल्म में सिर्फ मसालों का ख्याल रखा गया-गोत्र विवाद की मूल वजह को समझने की कोशिश इसमें नजर नहीं आती। अगर डायरेक्टर साहब खाप पंचायत का मतलब समझ लेते तो बेहतर फिल्म बन सकती थी।

गुरुवार, 8 मार्च 2012

सबसे पीड़ा दायक होता है...

होली के दिन दफ्तर जाना।


रंग-गुलाल छोड़करकाम में खो जाना।।


दिल में उठती मस्ती की तरंगों को दबाना


उमंगों का गला घोंटकर पैकेज/एसटीडी-वीओ बनाना
होली के रंग- और मस्ती भूलकर


विजुअल्स की आईडी याद करना
समाजवादी पार्टी को गुंडागर्दी के लिए कोसना


जहरीले रंगों से बीमार बच्चों को देखकर मन मसोसना
लालू-मुलायम के जलसे पर नजर रखना


फिल्म स्टारों की होली की पल-पल की खबर रखना
ये सबसे खतरनाक भले ही ना हो...


लेकिन सबसे पीड़ादायक जरूर होता है।
जी हां, त्योहार की खुशियों कोदफ्तर में दम तोड़ते देखना


सबसे पीड़ा दायक होता है।
सबसे पीड़ा दायक होता है।।

सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

ये कैसा लोकतंत्र?

जब देश में लोकतंत्र कायम हुआ-तो सुनते हैं कि बड़ा जश्न मनाया गया था। कहा गया था कि देश की तकदीर जनता के हाथों सौंप दी गई। जनता के शासन में सबसे सुप्रीम और सर्वोच्च जनता। राजतंत्र में परंपरा थी कि पहले देश का राजा मां की कोख से जन्म लेता था-लेकिन गणतंत्र में नई परंपरा शुरू हुई-देश का राजा मां की कोख से नहीं बल्कि बैलेट बॉक्स (मतपेटी) से पैदा होगा। वो राजा नहीं सेवक होगा। जनसेवक।लेकिन सिर्फ छह दशक में ही सारी परिभाषाएं-परंपराएं अपने मायने खोती प्रतीत हो रही हैं। जिस लोकतंत्र को देश की सबसे बड़ी उपलब्धि बताया गया था- उसी लोकतंत्र को कुछ लोगों ने राजशाही का जरिया बना लिया है।जेहन में सवाल उठता है कि आखिर अपने देश में ये कैसा लोकतंत्र है...?लोकतंत्र के नाम पर कुछ नेता किस तरह का सिस्टम खड़ा कर रहे हैं?देश की सबसे बड़ी और प्राचीन पार्टी में मां और बेटा 'हाईकमांड' हैं। मानो वो दोनों किसी लोकतंत्रिक पार्टी के नेता नहीं-बल्कि महारानी और युवराज हों। चाटूकार मंत्री सरेआम धमकी देते हैं युवराज चाहें तो आधी रात को भी प्रधानमंत्री बन सकते हैं। तो क्या देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी सिर्फ मां-बेटे की अनुकंपा पर ही सलामत है?उस मंत्री को ऐसी कौन सी शक्ति हासिल है-जो वो अपने बॉस को खुलेआम कमजोर बताकर खिल्ली उड़ाता है-और उसका बाल भी बांका नहीं हो पाता?क्या यही लोकतंत्र है?एक सूबा (पंजाब) ऐसा है जहां बाप-बेटे की जोड़ी बादल एंड सन्स किसी कॉर्पोरेट कंपनी की तरह सरकार चलाते हैं। घर की औरत सबसे बड़ी पंचायत में नुमाइंदगी करती है। उन्हें सत्ता से बेदखल करने के लिए बाप-बेटे की एक और जोड़ी मैदान में है। (मां पहले ही संसद में मौजूद है-चाचा को टिकट नहीं मिली इसलिए पार्टी छोड़कर बादल एंड सन्स के साथ हो लिए)जाहिर है पटियाला का राजपरिवार लोकतंत्र की उंगली पकड़कर राजशाही चला रहा है।कमोबेश यही मॉडल पंजाब से पड़ोसी हरियाणा में लागू है। वहां भी सात साल पहले तक चौटाला परिवार का शासन था। अब जो सीएम हैं-वो अपने बेटे को सियासत की एबीसीडी सिखा रहे हैं। बल्कि काफी कुछ सिखा चुके हैं। दिल्ली में भी मम्मी सीएम हैं-और बेटा एमपी।यूपी में मुलायम-अखिलेश यादव, शिवपाल सिंह यादव। अजित सिंह-जयंत चौधरी- अपनी-अपनी पार्टी के सुप्रीमो बने बैठे हैं। कांग्रेस के कई नेता--(जो केंद्र में मंत्री हैं)-अपने नौनिहालों के लिए टिकट की मारामारी कर चुके हैं। जिनके बेटों को टिकट मिल गई वो पूरी ताकत के साथ पार्टी के प्रचार में जुटे हैं। जिन्हें टिकट नहीं मिल पाई-वो पार्टी कैंडिडेट को सबक सिखाने का मौका तलाश रहे हैं।बेटे-भाई-भतीजे- और रिश्तेदारों की टिकट कटने पर बीजेपी (पीर्टी विद ए डिफरेंस)का भी भीतरघात दुनिया के सामने आ चुका है। जिन्हें अपनी शर्तों पर टिकट मिल गई वो पार्टी का सिपाही- जो पीछे रह गया वो बागी हो गया।और हां, दक्षिण भारत के सबसे बड़े क्षत्रप को कोई कैसे भूल सकता है। उनके परिवार में कुल कितने सदस्य हैं-ये तो वो खुद भी नहीं जानते होंगे--(आखिर बढ़ती उम्र और यादाश्त की सीमा है) लेकिन एक बात पूरा देश जानता है कि घर में सारे के सारे नेता हैं। जब उनकी फैमिली पार्टी सत्ता में होती है तो कोई सूबे में धाक जमाता है-तो किसी की धाक दिल्ली तक नजर आती है।सवाल फिर वही- ये कैसा लोकतंत्र है?कहने वाले कह सकते हैं कि इनमें से कोई भी नेता तानाशाह नहीं है। परिवारवाद के पोषक सभी नेता जनता की ताकत पर सियासत में टिके हैं। जनता वोट से चुनकर उन्हें और उनके बेटे-पोतों-भाई-भतीजों-रिश्तेदारों को सदन में भेजती है। लेकिन दलील देने वाले भी अच्छी तरह जानते हैं कि जिनके हाथ में सियासत की ताकत है उनके लिए चुनाव सिर्फ जोर आजमाइश का खेल है। और जोर आजमाने का हुनर उन्हें बखूबी आता है। बात सिर्फ मौके की है। जब तक सेर को सवा सेर नहीं टकरा जाता तब तक जनता भी उनकी ताकत को लोहा मानने पर मजबूर होती है।

शनिवार, 1 मार्च 2008

कथा पुराण-- भाग-1...मेनका की मेरिटलिस्ट

सिलेक्शन कमेटी की मुहर लगवा कर मेनका ने मेरिटलिस्ट देवराज को सौंप दी। उन सभी का चयन पक्का था। बस इंटरव्यू की औपचारिकता बाकी थी। इंटरव्यू खुद देवराज इंद्र को लेना था। देवलोक का इतिहास गवाह है कि इंटरव्यू में देवराज कैंडिडेट की सिर्फ एक ही काबलियत देखते थे कि जिसे वो राजनर्तकी बनाने जा रहे हैं, वो कैसी दिखती है और कैसी बोलती कैसी है। लेकिन देवलोक में ये चर्चाएं भी आम हो चली थी कि देवराज ने इंटरव्यू का प्रावधान सिर्फ इसलिए करवा रखा है कि वो हर कैंडिडेट से अकेले में मुलाकात कर अपने लिए संभावनाएं तलाश लें। बहरहाल, मेरिट लिस्ट में दस नाम देखकर देवराज थोड़ा चकराए। उन्होंने सवाल किया- अरे मेनका, पोस्ट तो सिर्फ सात ही थी ना... ये दस नामों की लिस्ट क्यों ले आईं। मेनका ने शरारती लहजे में जवाब दिया- सर, इस बार सिलेक्शन में आपकी तमाम जरूरतों का ख्याल रखा गया है। ज्यादा ऑप्शन रहेंगे, तो आप किसी एक या दो डांसर के मोहताज नहीं रहेंगे। दिन हो या रात- मौजां ही मौजां...। अब वो दिन दूर नहीं सर, जब देवलोक की डांसर देवलोक से बाहर भी धूम मचाएंगी।
देवराज का दिल बल्लियों उछलने लगा। मेनका को दिल से दुआएं दीं और सोचने लगे कि मेनका ने उनके आराम का सामान तैयार करने में पूरी तत्परता बरती है। इसी खुशफहमी में देवराज ने कैंडिडेट को बुलाना शुरू किया। शुरू में दो-तीन लड़कियों तक तो सब ठीक चला, लेकिन उसके बाद जब मेनका की चेलियां और राजनर्तकी उर्वशी और रंभा की रिश्तेदार आनी शुरू हुईं, तो देवराज हैरान-परेशान हो गए। हर चेहरा उन्हें जाना-पहचाना लगा। उन्हें याद आया कि उनमें से कोई नगर सेठ कुबेर की बेटी है, तो कोई सचिवालय में कार्यरत प्रिंसिपल सेक्रेटरी या किसी दूसरे अफसर की। कई लड़कियों की तो बर्थ-डे पार्टी में वो शिरकत कर चुके थे। बेचारे क्या खाक इंटरव्यू लेते... किसी ने कहा- हैलो अंकल, तो कोई बोली- काकाश्री नमस्कार। मतलब ये कि हसीनों की यह नई फसल देवराज को उनकी उम्र का अहसास भी करा गई और रिश्तेदारी का नश्तर भी चुभो गई। इंटरव्यू की कार्रवाई खत्म करने के बाद देवराज पानी का पूरा गिलास गटक गए। उन्होंने फौरन मैडम मेनका को बुला भेजा।
देवराज मेनका से बोले- ये तुमने क्या कर डाला... ये क्या मेरिट लिस्ट तैयार की है... कोई तो डांसर ऐसी हो, जो हमारे लिए अजनबी हो... इनमें से तो हम ज्यादातर के मां-बाप को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं। डांस देखने तक तो ठीक है, लेकिन उनके साथ हम एकांतवास कैसे करेंगे। मेनका देवराज की हालत का पूरा मजा ले रही थी। जले पर नमक छिड़कते हुए वो बोली- अरे सर, आप भला इन बातों का लिहाज कब से करने लगे... भूल गए, घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या। हमने आपके ऐशो-आराम के लिए देवलोक का बेस्ट स्टफ चुना है। अब जिसे भी चुना जाएगा, वो किसी ना किसी की तो बहन या बेटी होगी ही, आपको इससे क्या फर्क पड़ता है। जहां तक मैं जानती हूं, पहले तो कभी नहीं पड़ा...मेनका ने एक और तीर छोड़ा, फिर देवराज की तरफ देखे बगैर ही सलाह दी-सर, आप इधर-उधर की चिंताओं में मत पड़िए, बस नई डांसर्स की खूबसूरती और नृत्य कौशल का मजा लीजिए।
देवराज समझ चुके थे कि ये सब मेनका की चाल है, उन्हें जलील करने की। लेकिन देवराज भी कहां हार मानने वाले थे। वो ठान बैठे कि चाहे कुछ भी हो जाए ये मेरिटलिस्ट बदलवा कर रहेंगे। उन्होंने दलील दी- लेकिन मेनका हम जानते हैं कि नगर सेठ की बेटी तो ठीक से बोल भी नहीं पाती है,फिर भला वो सभासदों के समक्ष गायन कैसे कर पाएगी... क्या देवलोक के उत्सवों में हमारी नाक कटवाने का फैसला कर बैठी हो... मेनका समझ गई कि देवराज का निशाना कहां है। दरअसल नगर सेठ कुबेर की बेटी जूली उसकी सबसे प्रिय चेली थी। वो मैडम मेनका के डांस स्कूल की बेस्ट डांसर थी, बस गाने के मामले में कमजोर थी। देवराज मेनका को इसी का ताना दे रहे थे।
जली-भुनी मेनका ने पलटवार किया-सर, क्या आप कभी बदलते जमाने के साथ भी चलना सीखेंगे या लकीर के फकीर की तरह पुराने राग अलापते रहेंगे। वो पुराना फैशन था जब राजनर्तकी को ही गाने भी गाने पड़ते थे। आज कल जमाना स्पेशलाइजेशन का है। हमने आपके लिए दो-तीन शानदार सिंगर का भी इंतजाम किया है। जूली का तो आप सिर्फ डांस देखिए। गाने सुनाने के लिए दूसरी लड़कियां हैं ही। और सर, जब आप जूली को जानते ही हैं, तो उसकी खूबसूरती के किस्से भी आपके कानों में जरूर पड़े होंगे। खूबसूरती के मामले में एक भी कैंडिडेट उसके सामने नहीं ठहरती है। बोलने का क्या है। धीरे-धीरे बोलना भी सीख जाएगी और गाना भी।
लेकिन मेनका.... देवराज बात पूरी कर पाते उससे पहले ही मेनका बोली- लेकिन-वेकिन कुछ नहीं है सर, जूली एक आजाद ख्याल लड़की है। आप बेफिक्र रहिए... वो पूरी तरह प्रोफेशनली बिहेव करेगी। मैं उसे समझा दूंगी कि डांसर के तौर पर ज्वाइन करने से पहले वो अपनी सारी जान-पहचान और रिश्तेदारियां घर में खूंटी पर टांग कर आए। आगे बढ़ना है तो सिर्फ अपने काम पर ध्यान दे। मेनका ने इतनी गारंटी क्या दी, देवराज मेरिट लिस्ट बदलने की अपनी जिद भूल गए। उन्होंने पूरी लिस्ट को अप्रूव करते हुए कहा- तुम जिम्मेदारी लेती हो तो ठीक है मेनका। लेकिन सभी कैंडिडेट को अच्छी तरह समझा देना कि देवलोक में किस तरह काम होता है। तुम चाहो तो छोटे-मोटे फंक्शन के लिए एक-दो ट्रेनी और ले लो। बस देवलोक के रास-रंग में कमी नहीं आनी चाहिए। मेनका बोली- थैंक्यू सर, आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।
(जारी... आगे है--- कुबेर की बेटी)

शुक्रवार, 29 फ़रवरी 2008

कथा पुराण-- भाग-1...मेनका की मनमानी

देवलोक में भावी राजनर्तकी की चयन प्रक्रिया अपने आखिरी पड़ाव पर थी। सभी प्रतिभागी अपने प्रतिभा के जौहर दिखा कर जा चुकी थी। अब सिलेक्शन कमेटी के प्रदर्शन की बारी थी। कमेटी की अध्यक्ष मैडम मेनका जब तक कमेटी की अहम बैठक में पहुंची, तब तक राजनर्तकी रंभा और उर्वशी रिजल्ट को अंतिम रूप देने में जुटी थीं। दरअसल प्रतियोगिता को पारदर्शी वनाने के लिए कुछ वरिष्ठ सभासदों को जज बनाया गया था। उन जजों की मार्किंग के आधार पर ही ये रिजल्ट तैयार हो रहा था। लेकिन मेनका जानती थी कि राजनर्तकी का चयन इस गणित के आधार पर नहीं, बल्कि आपसी जोड़-तोड़ के आधार पर होगा। इसलिए रंभा और उर्वशी पर सरसरी नजर डाल कर मैडम मेनका सीधे अपने केबिन में जा पहुंची। कुछ देर बाद उर्वशी और रंभा रिजल्ट की फाइल लेकर वहीं आ गईं। फाइल में लगी मेरिट लिस्ट देखकर मैडम मेनका की आंखें फटी की फटी रह गईं। टॉप 20 की लिस्ट में उनकी सिर्फ तीन चेलियां शामिल थीं, वो भी 15वीं पायदान के बाद। 20 में सिलेक्शन होना था पांच या सात डांसरों का। मेनका लगभग चीखते हुए बोली, ये क्या है। किसने बनाई है ये लिस्ट। मेनका की हालत पर मन ही मन मुस्कुराते हुए उर्वशी बोली, तीन जजों की कमेटी मे यही लिस्ट तैयार की है। मेनका बोली, हां... तो... उनका काम था लिस्ट तैयार करना। उसे फाईनल तो हमें ही करना है ना...। इस बार रंभा ने जवाब दिया, लेकिन रिजल्ट फाइनल तो इसी लिस्ट में से होना है। मेरिट के आधार पर... रंभा की बात बीच में ही काटते हुए मैडम मेनका बोली, देखो। एक बात ध्यान से सुन लो... मेरिट- वेरिट कुछ नहीं होती। आपस में मिल-बैठकर लिस्ट फाइनल कर लेते हैं।
मेनका की बात सुनकर रंभा और उर्वशी अवाक रह गईं। उन्होंने आटे में नमक की मिलावट के बारे में तो सुना था, लेकिन मेनका तो नमक में आटा मिलाने की बात कर रही थी। दोनों ने एक स्वर में कहा- नहीं, मेनका ये नियमों के विरुद्ध है। उनकी बातें सुनते-सुनते मेनका ने मेरिट लिस्ट पर गहरी नजर डाली, तो वो सारा माजरा समझ गई। दरअसल, टॉप 5 में तो सरकारी डांस स्कूल की छात्राएं थीं। नंबर 6 पर था उर्वशी की भतीजी का नाम और नंबर 7 पर थी वो लड़की जो रंभा से डांस सीखती थी। यानी कि दोनों की ही सिलेक्शन लगभग पक्का था। मेनका जान गई कि आखिर क्यों रंभा और उर्वशी नियमों की दुहाई दे रही हैं। लेकिन मैडम मेनका ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं। उसने साफ कर दिया कि जिस लिस्ट में उसके डांस स्कूल की लड़कियों का नाम नहीं होगा, वो उस पर दस्तखत नहीं कर सकती।
रंभा और उर्वशी बोली, लेकिन जो लड़कियां डिजर्व ही नहीं करतीं उनका सिलेक्शन कैसे हो सकता है। अंदर तक जलभुन गई मेनका ने कहा कि मैं अच्छी तरह जानती हूं कि कौन कितना डिजर्व करता है। तुम दोनों का सिलेक्शन कैसे हुआ था, ये भी मुझे आज तक याद है। बड़ी आईं मेरिट की बात करने वाली... मेनका का ये तीर निशाने पर लगा। दोनों राजनर्तकियों की बोलती बंद हो गई। मेनका ने दोनों को समझाया- मैं ये नहीं कहती कि पूरी लिस्ट बदल डालो। टॉप 1,2,3 डांसर को मत छेड़ो। उसके बाद दो कैंडिडेट मेरे डांस स्कूल की शामिल कर लो और एक-एक अपनी लड़कियों के नाम लिख लो। मैं सब समझती हूं कि अगर हमने सारी लड़कियां अपनी ही सिलेक्ट कर लीं, तो देवलोक में बड़ी बदनामी होगी। वैसे भी क्या तुम दोनों नहीं जानती हो कि देवलोक के कार्यक्रमों में नाच-नाचकर हमारी क्या हालत हो जाती थी। देवलोक से मेरे जाने के बाद तो सारी जिम्मेदारी तुम दोनों के ही सिर आ पड़ी थी। अब तो और भी ज्यादा फाईट हो गई है। तब तो देवलोक में छोटा मंत्रीमंडल होता था, उनमें भी दो-चार मंत्री ही डांस और म्यूजिक के शौकीन होते थे। अब तो नए-नए लौडे भी खुद को कामदेव का अवतार समझते हैं। अब उनका दिल बहलाने के लिए कुछ ऐसी डांसर तो चाहिएं ही जो वाकई काबिल और मेहनती हों। इसीलिए मैं कह रही हूं कि टॉप 3 लड़कियों के नाम ज्यों के त्यों रहने दो। वो बड़े काम ही साबित होंगी। आखिर कुछ लड़कियां काम करने वाली भी तो चाहिएं। मैं जानती हूं उर्वशी कि ना तो तुम्हारी भतीजी इतनी मेहनत कर सकती है और ना ही रंभा की स्टूडेंट। मेरी चेलियां डांस के मामले में तो काफी टफ हैं, लेकिन यू नो... बेचारी बड़े घरों की हैं इसलिए जरा नाजुक हैं। मेनका ने हिदायत के लहजे में कहा- अपनी चारों लड़कियों का ख्याल भी हमें ही रखना होगा। इसलिए शिफ्ट का शेड्यूल तैयार करते वक्त ध्यान रखना कि उनकी ड्यूटी ऑ़ड ऑवर में ना पड़े। अगर तुम दोनों की सहमति हो तो इसके लिए हम लोग वर्क लोड की दुहाई देकर दो-तीन ट्रेनी डांसर की पोस्ट भी क्रिएट करवा सकती हैं। समझ गईं ना मैं क्या कहना चाहती हूं...।
मेनका किसी दार्शनिक की तरह बोले जा रही थी। राजनर्तकी रंभा और उर्वशी उसकी बातों का मर्म समझ रही थी। आखिर में वही हुआ, जो मेनका चाहती थी। मेनका की सलाह पर सीधे डांसरों की मेरिट लिस्ट फाईनल हुई। लिस्ट को देखकर रंभा भी खुश थीं और उर्वशी भी। मैडम मेनका को तो मानों मुहं मांगी मुराद मिल गई थी।
(जारी... आगे है--- मेनका की मेरिटलिस्ट)