शुक्रवार, 29 फ़रवरी 2008

कथा पुराण-- भाग-1...मेनका की मनमानी

देवलोक में भावी राजनर्तकी की चयन प्रक्रिया अपने आखिरी पड़ाव पर थी। सभी प्रतिभागी अपने प्रतिभा के जौहर दिखा कर जा चुकी थी। अब सिलेक्शन कमेटी के प्रदर्शन की बारी थी। कमेटी की अध्यक्ष मैडम मेनका जब तक कमेटी की अहम बैठक में पहुंची, तब तक राजनर्तकी रंभा और उर्वशी रिजल्ट को अंतिम रूप देने में जुटी थीं। दरअसल प्रतियोगिता को पारदर्शी वनाने के लिए कुछ वरिष्ठ सभासदों को जज बनाया गया था। उन जजों की मार्किंग के आधार पर ही ये रिजल्ट तैयार हो रहा था। लेकिन मेनका जानती थी कि राजनर्तकी का चयन इस गणित के आधार पर नहीं, बल्कि आपसी जोड़-तोड़ के आधार पर होगा। इसलिए रंभा और उर्वशी पर सरसरी नजर डाल कर मैडम मेनका सीधे अपने केबिन में जा पहुंची। कुछ देर बाद उर्वशी और रंभा रिजल्ट की फाइल लेकर वहीं आ गईं। फाइल में लगी मेरिट लिस्ट देखकर मैडम मेनका की आंखें फटी की फटी रह गईं। टॉप 20 की लिस्ट में उनकी सिर्फ तीन चेलियां शामिल थीं, वो भी 15वीं पायदान के बाद। 20 में सिलेक्शन होना था पांच या सात डांसरों का। मेनका लगभग चीखते हुए बोली, ये क्या है। किसने बनाई है ये लिस्ट। मेनका की हालत पर मन ही मन मुस्कुराते हुए उर्वशी बोली, तीन जजों की कमेटी मे यही लिस्ट तैयार की है। मेनका बोली, हां... तो... उनका काम था लिस्ट तैयार करना। उसे फाईनल तो हमें ही करना है ना...। इस बार रंभा ने जवाब दिया, लेकिन रिजल्ट फाइनल तो इसी लिस्ट में से होना है। मेरिट के आधार पर... रंभा की बात बीच में ही काटते हुए मैडम मेनका बोली, देखो। एक बात ध्यान से सुन लो... मेरिट- वेरिट कुछ नहीं होती। आपस में मिल-बैठकर लिस्ट फाइनल कर लेते हैं।
मेनका की बात सुनकर रंभा और उर्वशी अवाक रह गईं। उन्होंने आटे में नमक की मिलावट के बारे में तो सुना था, लेकिन मेनका तो नमक में आटा मिलाने की बात कर रही थी। दोनों ने एक स्वर में कहा- नहीं, मेनका ये नियमों के विरुद्ध है। उनकी बातें सुनते-सुनते मेनका ने मेरिट लिस्ट पर गहरी नजर डाली, तो वो सारा माजरा समझ गई। दरअसल, टॉप 5 में तो सरकारी डांस स्कूल की छात्राएं थीं। नंबर 6 पर था उर्वशी की भतीजी का नाम और नंबर 7 पर थी वो लड़की जो रंभा से डांस सीखती थी। यानी कि दोनों की ही सिलेक्शन लगभग पक्का था। मेनका जान गई कि आखिर क्यों रंभा और उर्वशी नियमों की दुहाई दे रही हैं। लेकिन मैडम मेनका ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं। उसने साफ कर दिया कि जिस लिस्ट में उसके डांस स्कूल की लड़कियों का नाम नहीं होगा, वो उस पर दस्तखत नहीं कर सकती।
रंभा और उर्वशी बोली, लेकिन जो लड़कियां डिजर्व ही नहीं करतीं उनका सिलेक्शन कैसे हो सकता है। अंदर तक जलभुन गई मेनका ने कहा कि मैं अच्छी तरह जानती हूं कि कौन कितना डिजर्व करता है। तुम दोनों का सिलेक्शन कैसे हुआ था, ये भी मुझे आज तक याद है। बड़ी आईं मेरिट की बात करने वाली... मेनका का ये तीर निशाने पर लगा। दोनों राजनर्तकियों की बोलती बंद हो गई। मेनका ने दोनों को समझाया- मैं ये नहीं कहती कि पूरी लिस्ट बदल डालो। टॉप 1,2,3 डांसर को मत छेड़ो। उसके बाद दो कैंडिडेट मेरे डांस स्कूल की शामिल कर लो और एक-एक अपनी लड़कियों के नाम लिख लो। मैं सब समझती हूं कि अगर हमने सारी लड़कियां अपनी ही सिलेक्ट कर लीं, तो देवलोक में बड़ी बदनामी होगी। वैसे भी क्या तुम दोनों नहीं जानती हो कि देवलोक के कार्यक्रमों में नाच-नाचकर हमारी क्या हालत हो जाती थी। देवलोक से मेरे जाने के बाद तो सारी जिम्मेदारी तुम दोनों के ही सिर आ पड़ी थी। अब तो और भी ज्यादा फाईट हो गई है। तब तो देवलोक में छोटा मंत्रीमंडल होता था, उनमें भी दो-चार मंत्री ही डांस और म्यूजिक के शौकीन होते थे। अब तो नए-नए लौडे भी खुद को कामदेव का अवतार समझते हैं। अब उनका दिल बहलाने के लिए कुछ ऐसी डांसर तो चाहिएं ही जो वाकई काबिल और मेहनती हों। इसीलिए मैं कह रही हूं कि टॉप 3 लड़कियों के नाम ज्यों के त्यों रहने दो। वो बड़े काम ही साबित होंगी। आखिर कुछ लड़कियां काम करने वाली भी तो चाहिएं। मैं जानती हूं उर्वशी कि ना तो तुम्हारी भतीजी इतनी मेहनत कर सकती है और ना ही रंभा की स्टूडेंट। मेरी चेलियां डांस के मामले में तो काफी टफ हैं, लेकिन यू नो... बेचारी बड़े घरों की हैं इसलिए जरा नाजुक हैं। मेनका ने हिदायत के लहजे में कहा- अपनी चारों लड़कियों का ख्याल भी हमें ही रखना होगा। इसलिए शिफ्ट का शेड्यूल तैयार करते वक्त ध्यान रखना कि उनकी ड्यूटी ऑ़ड ऑवर में ना पड़े। अगर तुम दोनों की सहमति हो तो इसके लिए हम लोग वर्क लोड की दुहाई देकर दो-तीन ट्रेनी डांसर की पोस्ट भी क्रिएट करवा सकती हैं। समझ गईं ना मैं क्या कहना चाहती हूं...।
मेनका किसी दार्शनिक की तरह बोले जा रही थी। राजनर्तकी रंभा और उर्वशी उसकी बातों का मर्म समझ रही थी। आखिर में वही हुआ, जो मेनका चाहती थी। मेनका की सलाह पर सीधे डांसरों की मेरिट लिस्ट फाईनल हुई। लिस्ट को देखकर रंभा भी खुश थीं और उर्वशी भी। मैडम मेनका को तो मानों मुहं मांगी मुराद मिल गई थी।
(जारी... आगे है--- मेनका की मेरिटलिस्ट)

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2008

कथा पुराण-- भाग-1...मेनका की चेली

देवलोक के जरूरत है काबिल डांसरों की। अगर आप हर तरह के म्यूजिक पर थिरकने के साथ-साथ गानें में भी माहिर हैं, तो फौरन अपना बायोडेटा भेजें, सिर्फ एक हफ्ते के अंदर...साथ में अपना फोटो भेजना ना भूलें...
अखबारों में डांसर के लिए ये इश्तेहार क्या छपे, देवलोक में डांसर बनने की ख्वाहिशमंद लड़कियों के बायोडेटा का ढेर लग गया। ज्यादातर ने अपने फोटोग्राफ्स भी भेजे थे। सब की सब एक से बढ़कर एक खूबसूरत। साफ था कि मुकाबला कड़ा होने वाला था। बायोडेटा की स्क्रीनिंग के वक्त मैडम मेनका ने साफ कर दिया कि जिस लड़की ने फोटोग्राफ्स नही भेजे हैं, उनकी उम्मीदवारी पर कोई विचार नहीं होगा। उर्वशी और रंभा ने इसका कड़ा विरोध किया। उनकी दलील थी कि तुरत-फुरत में बायोडेटा मांगे गए हैं, इसलिए मुमकिन है कि कुछ लड़कियां मजबूरीवश फोटो न भेज पाई हों। ऐसी कई लड़कियों के बायोडेटा में उनकी शानदार नृत्य उपलब्धियों का जिक्र है। ऐसे में सिर्फ फोटो की वजह से उन्हें मौका दिए बिना मुकाबले से बाहर कर देना उनकी प्रतिभा के साथ नाइंसाफी होगी। उन्हें स्क्रीन टेस्ट के लिए बुला लेते हैं, जो अच्छा परफॉर्म न कर पाए, वो खुद ही बाहर हो जाएगी। लेकिन मेनका को ये दलीलें जमी नहीं। दरअसल वो बेवजह अपनी चेलियों के लिए मुकाबला चुनौतिपूर्ण नहीं बनाना चाहती थी। वो खुद जान गई थी कि कई लड़कियां वाकई इतनी टेलेंटेड हैं कि उनके सामने मेनका की चेलियां पानी भी नहीं मांग पाएंगी। ये मेनका को भला क्यों गवारा होता। मैडम मेनका ने नियमों की दुहाई देते हुए कहा कि अगर प्रतियोगिता के पहले की पड़ाव पर नियमों के साथ इस तरह छेड़छाड़ होगी तो फिर तमाशे का क्या मतलब है। आप दोनों चाहें जिसे भर्ती कर लें... मैं अभी चली जाती हूं।
मेनका के इस दांव के सामने रंभा और उर्वशी की एक नहीं चली। वो समझ गईं कि अगर मेनका ने सिलेक्शन कमेटी छोड़ दी तो प्रतियोगिता ही रद्द हो जाएगी और फिर मेनका को अपनी चेलियों की डायरेक्ट भर्ती कराने से कोई नहीं रोक पाएगा। प्रतियोगिता होने की सूरत में तो वो दोनो भी अपनी किसी भतीजी या चेली का सिलेक्शन करवा लेंगी, वर्ना उनके हाथ कुछ नहीं लगेगा। सब सोच विचारकर दोनों ने मेनका की बात मान ली और बगैर फोटो वाले बायोडेटा डस्टबीन में फेंक दिए गए। बाकी उम्मीदवारों को स्क्रीन टेस्ट के लिए कॉल भेज दी गई। तय वक्त पर स्क्रीन टेस्ट शुरू हुआ। उर्वशी और रंभा ये देखकर दंग थीं कि वहां पहुंचीं कई लड़कियां मैडम मेनका के डांस स्कूल की थी। सब की सब रईस और ऊंचे रसूखवाले घरों की बेटियां, जो डांस सीखने के लिए लाखों रूपए फूंक कर यहां पहुंची थीं। उनकी ड्रेस और लटके-झटके देखकर दरबार में बैठे तमाम लोग आहें भर रहे थे। उर्वशी और रंभा के चेहरे पर शरारती मुस्कान थी, क्योंकि उन्हें पता था कि मेनका की चेलियां डांस भले ही अच्छा करती हों, गाने के मामले में सब की सब फिसड्डी हैं।
मुकाबले में मेनका की चेलियों ने ऐसी कातिल अदाएं दिखाईं कि देखने वाले दिल थाम कर रह गए। लेकिन बारी जब गाने की आई तो वही हुआ, जिसका डर था। कोई सुर से भटक गई, तो किसी की ताल गड़बड़ा गई... और किसी को गाने के बोल ही ठीक से याद नहीं थे। इस प्रतियोगिता में रंभा और उर्वशी ने सिर्फ अपनी खास करीबियों को ही एप्लाई करने को कहा था। उनका प्रदर्शन औसत ही था। फिर भी दोनों आश्वस्त थीं कि उनकी एक-एक कैंडीडेट का सिलेक्शन पक्का है। इसी बीच, देवलोक के एक काफी पुराने सरकारी डांस स्कूल की कुछ छात्राओं की बारी आईं। उस डांस स्कूल की स्थापना कभी देवलोक के नृत्याचार्य के करकमलों से हुई थी। कभी वो नृत्य शिक्षा का इकलौता केंद्र था। सरकारी खजाने से उसके लिए ग्रांट की बारिश होती थी। लेकिन इन दिनों उसकी वही हालत हो चली थी, जो आजकल हिंदुस्तान में सरकारी स्कूलों और सरकारी अस्पतालों की हो गई है। ना मास्टर, ना डॉक्टर फिर भी जैसे-तैसे चल रहे हैं भगवान भरोसे... खैर, सरकारी डांस स्कूल की छात्राओं के सधे हुए नृत्य और कोयल से मीठे गीतों ने सबका मन मोह लिया। कुछ देर पहले तक इकतरफा दिख रहे मुकाबले में अब कांटे की टक्कर हो गई। मुकाबले में एक तरफ थी सिर्फ प्रतिभा और दूसरी तरफ था बाप का ऊंचा रसूख और हाई प्रोफाइल डांस टीचर्स की सरपरस्ती।
(जारी... आगे है--- मेनका की मनमानी)

सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

कथा पुराण-- भाग-1...मेनका के आंसू

ऑपरेशन विश्नामित्र के बिल पास कराने पहुंची मेनका बोले जा रही थी और देवराज इंद्र चुपचाप उसकी बातें सुने जा रहे थे। मेनका के हर इल्जाम में अपनी ओर उंगली उठते देखकर देवराज भी जरा तैश में आ गए- मेनका हमने तुम्हें वहां विश्वामित्र की तपस्या भंग करने भेजा था, बच्चे पैदा करने के लिए नहीं...क्या जरूरत थी उससे नैन मटक्का करने की। उसके साथ घर बसाना चाहती थी क्या... जबकि तुम जानती थी कि देवलोक के नियम इसकी इजाजत नहीं देते। देवराज ने भी नियमों की दुहाई दे डाली। अब तो मेनका देवराज से शास्त्रार्थ के मूड में आ गई। सर, मुझे आपसे इस तरह के तानों की उम्मीद तो कतई नहीं थी। लेकिन अच्छा हुआ मेरा ये भ्रम भी टूट गया। अब आप कान खोलकर सुनिए- विश्वामित्र के पास मैं अपनी मर्जी से नहीं गई थी। मुझे वहां भेजा गया था और भेजेने वाले थे खुद आप।क्या आप नहीं जानते कि चिंगारी के पास कपूर रखेंगे तो आग लगना लाजिमी है...। याद कीजिए आपने ही मुझसे साफ-साफ कहा था, मेनका तुम मेरी सबसे भरोसेमंद अप्सरा हो। मुझे हर हाल में रिजल्ट चाहिए.... तब तो विश्वामित्र की तपस्या से आप इतने डरे हुए थे कि आपने मुझे अल्टीमेटम ही दे दिया था- तपस्या भंग ना कर सको तो बेशक लौट कर मत आना...
सर, मैंने सिर्फ अपना काम किया था। मेरा काम था, विश्वामित्र की तपस्या भंग करना, वो मैंने किया। ये कहीं नहीं लिखा है कि एक अप्सरा को असाइनमेंट पूरा करते वक्त कौन सा तरीका अख्तियार करना है, क्या करना है, क्या नहीं करना है।
कुछ देर रुक कर मेनका ने जज्बाती होते हुए कहा- सर, मैंने तो आपका भरोसा नहीं तोड़ा। लेकिन ऑपरेशन विश्नामित्र के बाद आपने मेरे साथ जो सलूक किया, उसने मेरा दिल जरूर तोड़ दिया। कहते-कहते मेनका रोने लगी। मेनका के आंसू देवराज से देखे ना गए। देवराज ने आगे बढ़कर जैसे ही मेनका को चुप कराना चाहा, मेनका फूट फूटकर रोने लगी। मानो पूरी जिंदगी के आंसू आज ही बह जाना चाहते थे। देवराज घबराए हुए थे कि कहीं मेनका के आंसू सैलाब ना ला दें। तब तक कॉफी लेकर एक सेविका भी हाजिर हो गई। एक तरफ रोती हुई मेनका और दूसरी तरफ कॉफी की ट्रे थामे सेविका। देवराज पागलों की तरह चीखे- दरवाजा नॉक करके नहीं आ सकती थी क्या... कॉफी रख कर दफा हो जाओ... डरी- सहमी सेविका ट्रे रखकर उल्टे पांव भाग गई।
तब तक मेनका भी अपने आंसू पोछ चुकी थी। देवराज ने उसका सिर सहलाते हुए कहा- देखो मीनू, पुरानी बातों को याद करके दुखी होने से कोई फायदा नहीं। पुरानी बातों को भूल जाओ। मेनका ने अपने ढलके आंचल को संभालते हुए देवराज को फिर घेरा- सर, आपको मेरे फायदे की अगर जरा भी फिक्र है, तो मेरे तमाम बिल पास कर दीजिए। बेचारे देवराज असहाय हो गए। उन्होंने कहा- अच्छा चलो कॉफी तैयार करो, देखते हैं। कॉफी की चुस्कियों के साथ देवराज मेनका के बिलों का फाइल देखने लगे। टीए और डीए के बिलों तक तो सब ठीक-ठाक था। लेकिन मेडिकल बिल देखकर देवराज उछल पड़े। तमाम बिल किसी स्त्री रोग विशेषज्ञ यानी लेडी डॉक्टर के थे। कुछ ब्लड टेस्ट रिपोर्ट थी तो कुछ अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट। साथ में थे दवाओं के बिल। देवराज बोले- मेनका ये सब क्या है...क्या तुम्हारी प्रेगनेंसी का खर्च भी देवलोक के खजाने से भरना पड़ेगा। मेनका ने बेबाकी से जवाब दिया- सिर्फ प्रेगनेंसी का नहीं सर, डिलीवरी का भी। उसके बिल भी लगे हैं। उसकी आंखों में शरारत थी। देवराज का मुंह खुला का खुला रह गया, इसका पता उन्हें तब चला तब मुंह में मक्खी घुस गई। वो मन ही मन सोच रहे थे कि जिन अप्सराओं के साथ उन्होंने खुद ऐश की थी, कभी उनका मेडिकल खर्च नहीं उठाया। और मैडम मेनका हैं कि किसी थर्ड पर्सन के साथ ईलू-ईलू करके उनसे मेडिकल बिल पास कराना चाह रही थी। एक बार तो मन किया कि मेनका को बिलों की फाइल समेत उठा कर बाहर फेंक दें, लेकिन दूसरे ही पल ख्याल आया कि यदि इस बार मेनका नाराज हुई तो वे उससे उम्र भर के लिए हाथ धो बैठेंगे।
उधर, मेनका भी पूरी तैयारी के साथ आई थी। उसने देवराज को समझाते हुए दलील दी- देखिए सर, मेरा हरेक बिल जेनुअन है। औरों की तरह फर्जी बिल पेश करके आपको चपत लगाने का मेरा कोई इरादा नहीं है। ऐसा होता तो मैं अकाउंट में ही किसी से सेटिंग कर लेती, आपके पास ना आती। मैं आपसे सिर्फ अपना जायज हक मांग रही हूं। देवराज बोले- मेनका चलो तुम्हारे टीए-डीए और मेडिकल बिलों को एक मिनट के लिए मैं जायज मान भी लूं, लेकिन ये होटलों के बिल कैसे पास कर दूं... ये तो लाखों के बिल हैं। देवराज बिलकुल रूआंसे हो गए थे। वो कहने लगे- मेनका हमने तो तुम्हें जंगलों में भेजा था ना... फिर ये होटलों के बिल कहां से आ गए....मेनका के पास इसका भी जवाब था। वो फौरन बोली- सर, अगर आपकी इंटेलिजेंस पर भरोसा करती तो मैं विश्वामित्र तक कभी ना पहुंच पाती। मैंने शुरुआत में उसे जंगलों में ही खोजा था, लेकिन आप पता नहीं कब समझेंगे कि देवलोक से बाहर की दुनिया काफी हाईटेक हो गई है। वो तो भला हो टीवी चैनलों का- जो विश्वामित्र के प्रवचन लाइव टेलिकास्ट कर रहे थे। वर्ना आपने जो पता-ठिकाना बताकर मुझे भेजा था, वहां तो विश्वामित्र मुझे कभी ना मिलते। खर्च होना तो लाजिमी था। वैसे भी सर, स्पेशल असाइनमेंट के लिए तो आप कितनी भी अमाउंट पास कर सकते हैं। उस पर कोई ऑडिट भी नहीं होता। फिर क्य़ों आप इतना सिरदर्द मोल ले रहे हैं। मेनका के तर्कों के तीर उसके नैंनों से भी तीखे थे। देवराज इंद्र बेचारे पूरी तरह निहत्थे हो गए। हार कर उन्होंने ऑपरेशन विश्वामित्र के तमाम बिल पास करने में ही भलाई समझी। खुशी के मारे मेनका चहक उठी। उसने देवराज को गले से लगाकर कहा- थैंक्यू वैरी मच सर...। बरसों बाद मेनका की बाहों का आलिंगन पाकर देवराज धन्य हो गए। उन्हें करोडों के बिल कौड़ियों के नजर आ रहे थे।
(जारी... आगे है--- मेनका की चेली)

शनिवार, 9 फ़रवरी 2008

कथा पुराण-- भाग-1...मेनका का बदला

मेनका के डांस स्कूल के लिए राजकोष के दरवाजे खोल दिए गए। अपने खोए हुए रूतबे और रसूख को वो फिर से हालिस करने लगी। मेनका का फिर से राजनर्तकी बनना मुमकिन नहीं था, लिहाजा उसे देवलोक की संगीत एवं नृत्य परिषद् की मुख्य सलाहकार नियुक्त कर दिया गया। लेकिन ये तो महज एक बहाना था, असल में मेनका का काम देवराज का दिल बहलाना था। जिस दिन राजनर्तकी रंभा और उर्वशी का वीकली ऑफ होता या उनमें से कोई कैजुअल लीव पर होती, उस दिन देवराज के दरबार में सिर्फ मेनका अपने जलवे बिखेरती थी। रंभा और उर्वशी जलभुन जाती, लेकिन मेनका को दिनों-दिन ताकतवर होने से रोक पाना उनके बूते की बात नहीं थी।
इस बार मेनका भी संभल-संभल कर कदम बढ़ा रही थी। वो जानती थी कि बड़ी मुश्किल से अच्छा वक्त लौटा है। राजनर्तकी का दर्जा खोने के बाद बुरे वक्त में मेनका ने एक बात अच्छी तरह समझ ली थी कि देवराज जैसे बड़े लोग सिर्फ मतलब के यार होते हैं। जब तक सबकुछ ठीक है, मददगार बने रहते हैं। मुसीबत पड़ते ही उन्हें नियम, कायदे और कानून याद आ जाते हैं। मेनका ने ठान लिया था कि इस बार प्रोफेशनल और पर्सनल लाइफ का घालमेल नहीं करना है। दोनों को अलग-अलग रखने में ही बेहतरी है। इसीलिए मेनका देवराज को अवॉइड करने लगी। देवराज उसे मिलने के लिए कई मैसेज भिजवाए, लेकिन हर बार मेनका ने कोई ना कोई बहाना बना दिया। आखिरकार देवलोक के स्थापना दिवस पर देवराज को मौका मिल ही गया। अकेली मेनका को देखकर वो सीधे उसके पास जा पहुंचे। इधर-उधर की दो-चार बातें करने के बाद देवराज से मेनका को साफ-साफ बता दिया कि उसके डांस स्कूल के लिए जमीन और सरकारी ग्रांट सिर्फ सूर्यदेव की कोशिशों से मंजूर नहीं हुई, बल्कि उसकी हर फाईल खुद वो ही अप्रूव कर रहे हैं। मेनका ने चार इंची मुस्कान के साथ देवराज को थैंक्स कहा और मौका मिलते ही वहां से कट ली। देवराज बेचारे कसमसाकर रह गए।
देवराज की इस हालत का मेनका पूरा मजा ले रही थी। उसने ठान लिया था कि देवराज का कलेजा फूंक कर वो गिन-गिन कर बदले लेगी। दरअसल अपने बुरे वक्त के लिए मेनका पूरी तरह से देवराज इंद्र को ही जिम्मेदार मानती थी। ना वो उसे ऑपरेशन विश्वामित्र के स्पेशल असाइनमेंट पर भेजते, ना वो विश्वामित्र के इश्क में गिरफ्तार होती और ना ही उस पर देवलोक के कायदे तोड़ने के इल्जाम लगते। ना उससे राजनर्तकी का दर्जा छिनता- ना जिल्लत झेलनी पड़ती। अतीत के झरोखे में झांकते ही हर घटना किसी फिल्मी सीक्वेंस की तरह मेनका की आंखों के सामने घूम जाती थी। ऐसे ही यादों में खोए-खोए एक दिन मैडम मेनका के जहन में एक आइडिया कौंधा। क्यों ना ऑपरेशन विश्वामित्र से हुए अपने नुक्सान की भरपाई के लिए हर्जे-खर्चे का दावा किया जाए...। इतना सोचते ही मेनका की आंखें चमक उठीं। उसने फौरन मोबाइल के कैलकुलेटर से कुछ गुणा-भाग किया। उसके बाद जो रकम सामने आई, वो करोडों में थी। गुरबत के दौर ने मेनका को एक-एक पैसे की अहमियत समझा दी थी। लिहाजा वो देवराज से पाई-पाई का हिसाब कर लेना चाहती थी।
सारी केलकुलेशन कर लेने के बाद मैडम मेनका ने देवराज को फोन किया- हैलो सर, मैं आपसे मिलना अर्जेंट चाहती हूं। आज ही। देवराज को एक बार तो अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ। वो तो इतने दिनों से खुद मेनका से मिलने के मौके तलाश रहे थे, और आज खुद मेनका फोन लाइन पर थी। उनसे मिलने के लिए वक्त मांग रही थी। देवराज ने बिना देर किए कहा- हां, हां... जब जी करे चली आओ। तुम्हारे लिए तो हमारे दरवाजे आधी रात को भी खुले हैं। दूसरी तरफ से मेनका बोली- थैंक्स सर, मैं एक घंटे में पहुंच रही हूं।
देवराज ने शाम की सभी अपॉइंटमेंट केंसिल कर दी। वो बेसब्री से मेनका का इंतजार कर रहे थे। ठीक चार बजे मेनका की गाड़ी देवराज के कैंप ऑफिस में दाखिल हुई। उसे पूरे अदब के साथ देवराज के केबिन में पहुंचाया गया। कॉफी ऑर्डर करने के बाद देवराज ने मेनका को कुर्सी ऑफर की और बोले- हां, मीनू डीयर बताओ। (अकेले में देवराज इंद्र मेनका को प्यार से मीनू कहकर ही पुकारते थे। तब मेनका उनके मुंह से मीनू सुनकर खुश होती थी, लेकिन अब मन ही मन कुढ़ रही थी) मेनका ने ऐसा शो किया कि जैसे उसने देवराज की पूरी बात सुनी ही नहीं है। वो बोली- वो बात ऐसी थी सर... मेरे कुछ पिछले बिल बकाया थे... अगर आप की मेहरबानी हो तो.... मेनका की बात पूरी होने से पहले ही देवराज बोल उठे- अरे ये भी भला कोई पूछने की बात है। बिल भिजवा दिए होते, मैं चुटकियों में पास करवा देता। दरअसल देवराज क्राइसिस मैनेजमेंट में जुटे थे, वो मेनका को खुश करने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहते थे, इसीलिए जरा चापलूसी पर उतर आए थे। मैडम मेनका को भी जैसे मौके की ही तलाश थी। फौरन नेहले पर दहला दिया। वो तो ठीक है सर, लेकिन इन दिनों आप कुछ ज्यादा ही कायदे-कानून का ख्याल रखते हैं। डरती हूं कि कहीं देवलोक का संविघान फिर मेरे रास्ते की बाधा न बन जाए...
मेनका के व्यंग्यबाण देवराज के कलेजे को बींधते हुए चले गए और वो उफ तक न कर सके। मेनका को खुश करने के अंदाज में बोले- मीनू डीयर, तुम सिर्फ हुक्म करो। उसे पूरा करना मेरा काम है। बस इतना ध्यान रखना कि इस बारे में सूर्यदेव या किसी और को पता न चले। देवराज का इशारा समझते हुए मेनका बोली- सर, सूर्यदेव को मैं तो कुछ नहीं बताउंगी, लेकिन आप ख्याल रखिएगा। मुझे डर है कि कहीं मेरे बिल देखकर आप उन्हीं से डिस्कस करने ना बैठ जाएं। मेनका के इस वार से देवराज तिलमिला कर रह गए। वो कुछ बोलते उससे पहले ही मेनका ने एक फाइल उनके सामने रख दी। फाइल क्या थी बिलों की पुलिंदा थी। कई साल पुराने टीए-डीए का क्लेम था। कुछ मेडिकल बिल थे। इतनी मोटी फाइल देखकर देवराज बोले- मेनका ये सब क्या है...। मेनका ने जवाब दिया- सर, ये ऑपरेशन विश्वामित्र वाली स्पेशल असाइनमेंट के बिल हैं। आप तो जानते ही हैं, देवलोक के नियमानुसार जब भी कोई अप्सरा किसी स्पेशल असाइनमेंट पर देवलोक से बाहर जाती है, तो वो डबल अलाउंस की हकदार होती है। उसके नियमित वेतन और भत्तों से अलग उसे स्पेशल मेंटिनेंस अलाउंस भी दिया जाता है। लेकिन मुझे एक फूटी कौड़ी भी नहीं दी गई। ये बात आपसे बेहतर भला कौन जानता है कि ऑपरेशन विश्वामित्र की कामयाबी के बावजूद मुझे दुत्कार और जिल्लत के सिवाय कुछ नहीं मिला... आप मेरा मान तो नहीं लौटा सकते। कम से कम मेरा पैसा तो दिला ही सकते हैं। ये तय मानिए कि जब तक मेरे बिल पास नहीं हो जाते, मैं यहां से जाने वाली नहीं हूं- मेनका ने दो टूक कहा।
(जारी... आगे है-- मेनका के आंसू)

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008

कथा पुराण-- भाग-1 ...मेनका का डांस स्कूल

देवलोक में सब जानते थे कि मेनका का अपना डांस स्कूल है। उसके डांस स्कूल की देवलोक में वही रेपुटेशन थी, जो रेपुटेशन बॉलीवुड में सरोज खान की डांस एकेडमी की है। लिहाजा उसके डांस स्कूल में देवलोक के धनवान और रसूखदार लोगों की बच्चियां ही डांस सीखने आती थीं। देवलोक का ऐसा कोई डांस कंपीटिशन नहीं था, जिसमें मैडम मेनका की चेलियों ने धाक ना जमाई हो। जाहिर है, मैडम मेनका दोनों हाथों से दौलत बटोर रही थीं। ये और बात है कि मैडम को ये स्कूल अपने बुरे दिनों में गुजर-बसर के लिए शुरू करना पड़ा था। दरअसल विश्वामित्र के साथ अफेयर के बाद राजनर्तकी मेनका देवलोक में अपना दर्जा खो बैठी थीं। पहले उसे राज नर्तकी के पद से हाथ धोना पड़ा और फिर देवलोक के नियमों के मुताबिक उससे सरकारी बंगला और गाड़ी भी छीन ली गई। देवराज बेचारे कलेजे पर पत्थर रखे ये सब देखते रहे। लेकिन कुछ कर नहीं पाए। एक बार तो सोचा, कि संविधान में संशोधन करवा कर मेनका के लिए कोई खास धारा जुड़वां दें कि उससे कोई सरकारी सुविधा वापस ना ली जाए। लेकिन मजबूर थे। अपनी पार्टी के अल्पमत में होने का उन्हें पहली बार अफसोस हो रहा था। डर था कि कहीं ये मुद्दा विदवत परिषद में न उठ जाए। किसी शरारती विरोधी ने अविश्वास प्रस्ताव रख दिया तो पास होना पक्का है। क्योंकि मेनका के साथ अपने अंतरंग रिश्तों की वजह से देवराज पहले ही काफी बदनाम हो चुके थे। देवराज को ये भी अंदेशा था कि उनके जिन विरोधियों को मेनका ने कभी घास नहीं डाली, उन्हें तो बस एक मौके का ही इंतजार है। देवराज जानते थे कि वह लोग देवलोक में बिजली-पानी और सड़क के मुद्दों पर भले ही खामोश रहते हों, लेकिन मेनका के मुद्दे पर उनकी सरकार पक्का गिरा देंगे।
यही सब सोच-सोच कर देवराज खामोश थे। उधर. मेनका ने न जाने कितनी बार कातर निगाहों से देवराज की ओर देखा, लेकिन कोई पॉजिटिव रेस्पांस नहीं मिला। रात-बेरात उन्हें फोन तक किए, लेकिन देवराज ने एक भी कॉल रिसीव नहीं की। हर बार उसे एक ही आवाज सुनाई देती--डायल किया गया नंबर अभी व्यस्त है, कृपा थोड़ी देर बाद डायल करें....हद तो तब हो गई जब मेनका के फोन करने पर देवराज का नंबर स्विच ऑफ आने लगा। मेनका को वो वक्त याद आने लगा जब मेनका की एक मिस्ड कॉल पर देवराज उसे फौरन फोन करते थे और फिर भोर होने तक दोनों के बीच मीठी-मीठी बातें होती थीं। देवराज मेनका के सामने अपने दिल के तमाम राज खोल कर रख देते थे और मेनका... मेनका तो देवराज को ऐसी-ऐसी बातें बताती थी कि उनकी होश फाख्ता हो जाते थे। मेनका उनके दरबारियों का कच्चा-चिट्ठा खोल कर रख देती थी। यानी मेनका देवराज की प्रेयसी कम मुखबिर ज्यादा थी। भाव-विभोर देवराज मैडम मेनका की तारीफों के पुल बांधते नहीं थकते थे, लेकिन कुछ ही दिन में सब बदल गया।
बार-बार गुहार का भी जब कोई असर नहीं हुआ, तो मैडम मेनका ने देवराज को जीभर के गालियां दीं। यानी देवराज की सरकार तो गिरने से बच गई, लेकिन वो खुद अपनी हॉट फेवरेट मेनका की नजरों से गिर गए। कुछ दिन बाद मेनका को समझना पड़ा कि ये सारा दोष उम्र का है। उम्र ढलने लगी है, इसीलिए उसके कजरे में अब पहले जैसी धार नहीं रही। वर्ना एक जमाना था जब उसकी एक नजर से पूरे देवलोक में मार-काट मच जाती थी। सचमुच... सब दिन होत ना एक समान। ऐसे में उसके सामने मसीहा बनकर आए-सूर्यदेव। वक्त की मारी मेनका को सूर्यदेव ने खुद ही मदद ऑफर की थी। शुरूआत में मेनका को सूर्यदेव की मदद लेने में थोड़ी झिझक हुई, क्योंकि मेनका की रिपोर्ट पर ना जाने कितनी बार देवराज ने सूर्यदेव की वॉट लगाई थी। मेनका अच्छी तरह जानती थी कि उसकी मुखबिरी ने ना जाने कितनी बार सूर्यदेव की चाल उलट दी थी। लेकिन उसके लिए अच्छी खबर ये थी कि सूर्यदेव उसकी साजिशों से बेखबर थे। दरअसल वो तो मेनका की अदाओं के कायल थे, इसलिए उसके करीब आने का मौका चाहते थे। सूर्यदेव जानते थे तो सिर्फ इतना कि मेनका के दिल में उतरने का इससे बेहतरीन मौका उन्हें फिर कभी नहीं मिलेगा। मजबूरी ने मेनका को भी सूर्यदेव के करीब ला दिया। दोनों की नजदीकियों ने जल्द ही असर दिखाया। सूर्यदेव ने अपने सियासी रसूख की धौंस दिखाकर देवराज के सामने शर्त रख दी कि सरकारी सेवाओं से महरूम की गईं मेनका का राजनर्तकी वाला दर्जा बहाल हो। उन्हें सभी सुविधाएं बा-इज्जत लौटाई जाएं।
ये तमाम ऐसी बातें थीं, जो मेनका के लिए देवराज के दिल में थीं। लेकिन बदले हुए हालात में उनके दिल के जज्बात भी बदल गए। आखिर इतने बरसों से राज कर रहे थे, कोई झक नहीं मार रहे थे। वो इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि अगर इस वक्त मेनका का पुराना दर्जा बहाल हुआ तो सारा क्रेडिट उनके निकटम प्रतिद्वंद्वी सूर्यदेव को मिलेगा। मेनका की नजरों से तो गिर ही चुके थे, अब सूर्यदेव के सामने किरकिरी कैसे करवा लेते। सो उन्हें फौरन संविधान सभा की याद आई। संविधान सभा की दुहाई देकर देवराज ने सूर्यदेव को समझाया कि मित्र मेनका से मुझे भी हमदर्दी है, लेकिन विश्वामित्र से मोहब्बत करके मेनका ने देवलोक के कायदे कानून तोड़े हैं। ऐसे में यदि हमने उसका दर्जा बहाल किया तो आपकी, हमारी और सरकार की जग हंसाई होगी। सूर्यदेव हर काम को जरा छुपकर करने में यकीन रखते थे। इसीलिए तमाम तरह शौक रखने के बावजूद उनकी सार्वजनिक छवि साफ सुथरी थी। बात जब इमेज की आई तो उन्हें मेनका की खातिर देवराज से टकराने में समझदारी नजर नहीं आई। लेकिन मेनका को जबान दे चुके थे। सो अपनी शर्त को जरा का लाइट करते हुए बीच-बचाव का रास्ता अपनाने की बात कही। देवराज तैयार हो गए। आखिरकार वो भी मेनका की नजरों में अपनी खोई हुई जगह फिर से पाना चाहते थे। लंबी मंत्रणा के बाद देवराज और सूर्यदेव ने तय किया कि फिलहाल मेनका को राजप्रासाद से दूर कहीं जमीन देकर एक आश्रम खुलवा देते हैं। जनता की यादाश्त कमजोर होती है। कुछ दिन बाद जब मामला शांत हो जाएगा, तो उसके नृत्य कौशल को पाठ्यक्रम में शामिल कर दिया जाएगा। पाठ्य पुस्तकों के जरिए ये पढ़ाया जाएगा कि मेनका विश्वामित्र के पास अपनी मर्जी से नहीं गई थी, बल्कि राजाज्ञा से उसे ऐसा करना पड़ा। सत्ता के शीर्ष पर बैठे देवराज और सूर्य़देव ने जैसा सोचा था, वैसा ही हुआ। कुछ दिनों में मेनका के पक्ष में हमदर्दी का माहौल बन गया। जिस आश्रम को मेनका अपने बुढ़ापे का ठिकाना मान रही थी, वो आश्रम से डांस स्कूल बन गया।
(जारी... अगले अंक में--- मेनका का बदला)

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2008

कथा पुराण-- भाग-1 ...नाच बिना सब सून

पूरे देवलोक में अंधेरा छाया हुआ था। लोग हैरान परेशान थे कि सभी हाइड्रोलिक पावर प्लांट सही काम कर रहे थे, फिर भी अंधेरा क्यों है। बेचारे इस बात से अनभिज्ञ थे कि देवलोक में अंधेरे का मूल कारण था- देवराज इंद्र का खराब मूड। कई दिनों से देवराज के चेहरे पर 12 बजे थे। हर वक्त उन्हें बस एक ही चिंता खाए जा रही थी कि रंभा, मेनका और उर्वशी के बूढ़ी होने के बाद उनके दरबार में डांस आइटम कौन पेश करेगा। इसी फिक्र में उन्होंने पूरे देवलोक में ब्लैक आउट का ऐलान कर रखा था। अब देवलोक में उजाला तभी संभव था जब देवराज को कोई उम्मीद की किरण दिखाए और उनके लिए राजनर्तकी का प्रबंध करे। देवराज के इस ऐलान से सबसे ज्यादा परेशान बिजली मंत्री सूर्यदेव थे। हों भी क्यों नहीं, पूरी मंत्री परिषद तानों से उनका कलेजा छलनी किए दे रही थी। सबकी जुबां पर एक बात थी- क्या सर, आपके राज में भी सूरज तले अंधेरा रहेगा तो कैसे चलेगा... दो ही दिन में सूर्यदेव का घर से निकलना मुश्किल हो गया। आखिरकार हार कर उन्होंने देवराज के बंगले का रुख किया। देवराज से हाय-हैलो के बाद सूर्यदेव सीधे मतलब की बात पर आ गए और बोले, ये क्या हो रहा है महाराज... ऐसे अंधेरे में भला कब तक चलेगा। जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। एक तो ब्लैक आउट, ऊपर से कड़कड़ाती सर्दी। लोगों को नहाने-धोने में बड़ी दिक्कत पेश आ रही है। देवराज ने मुंह लटकाए हुए ही जवाब दिया- हम जानते हैं सन्नी डियर (देवराज इंद्र और सूर्यदेव एक ही गुरू के चेले थे। दोनों बैचमेट थे, इसलिए देवराज सूर्यदेव को प्यार से सनी कहते थे) । हम जानते हैं, जनता परेशान है। हम जानते हैं, आप लोग भी परेशान हैं। लेकिन मेरी चिंता भी नाहक नहीं है। भला आप ही बताइए. जब जिंदगी में डांस-म्यूजिक और पार्टी नहीं है, तो भला क्या जिंदगी है। रंभा, मेनका और उर्वशी के थके हुए पांवों की थिरकन अब हमारे सीने में जीने के अरमान नहीं जगाते। उनकी पायलों में अब छमाछम नहीं, सिर्फ कंपन शेष है। ऐसे में बताइए, जीने का सामान कहां से करें, कैसे करें। हर ओर जब नाउम्मीदी का अंधेरा है, तो हमें भला कैसे ये उजाले रास आ सकते हैं...
सूर्यदेव कॉलेज के दिनों से जानते थे कि देवराज एक नंबर के रसिक हैं। जनाब दो वक्त का खाना छोड़ सकते हैं, लेकिन एक वक्त का भी नाच-गाना नहीं छो़ड़ सकते। सो दिलासा देते हुए बोले, तो महाराज समस्या क्या है। आपके एक इशारे पर एक क्या हजार आइटम गर्ल हाजिर हो सकती हैं। भला देर किस बात की है। देवराज ने सूर्यदेव की ओर मुस्कुराते हुए कहा, हम जानते हैं सन्नी। लेकिन तुम समझ नहीं पा रहे हो। हमें कोई चालू टाईप की आइटम गर्ल नहीं चाहिए, बल्कि रंभा, मेनका और उर्वशी के लेवल की क्लासिक डांसर चाहिए। सूर्यदेव समझ गए कि बीमारी क्या है। देवराज भाई देवदास हो चुके हैं और चंद्रमुखी के डांस की तरह भाई को रंभा, मेनका और उर्वशी के डांस का चस्का लग चुका है। मौके की नजाकत भांपते हुए बोले- तो सर, दिक्कत क्या है। उन्हीं तीनों में से किसी को ये जिम्मेदारी सौंप दीजिए कि अपने जैसी ही काबिल डांसर खोज कर लाए। चाहें तो अखबार में इश्तेहार दे दीजिए। फोटो समेत एप्लीकेशन मंगाइए। जो शॉर्टलिस्ट हों, उनका ऑडिशन और स्क्रीन टेस्ट ले लीजिए।
ये सब सुनते ही देवराज की आंखे चमक गईं। लेकिन मन ही मन खुद को गालियां भी दीं कि इतना धांसू आइडिया हमेशा इसी ढक्कन के दिमाग में क्यों आता है। राजा मैं हूं, राज-काज का मेरा तजुर्बा भी इससे कहीं ज्यादा है। उसके बावजूद इसके नाम की तूती बोलती है। अपने मन के भाव छुपाते हुए देवराज ने बडे प्यार से सूर्यदेव को गले से लगा लिया और बोले, तुम्हारे पास मेरी हर परेशानी का हल है। इसीलिए में तुम्हें सबसे ज्यादा लाइक करता हूं। सूर्यदेव ने देवराज के शिकंजे से खुद को छुड़ाते हुए कहा- नहीं सर, ये सब तो आपके साथ काम करने का असर है। वर्ना बंदे में भला क्या खूबी है। हालांकि वो मन ही मन यही सोच रहे थे कि उन्हें लाइक करना देवराज की च्वाइस नहीं, मजबूरी है। वो तो कब के मंत्री परिषद से इस्तीफा दे चुके होते, लेकिन देवराज हर बार उन्हें पुरानी दोस्ती और साथ पढने की दुहाई देकर रोक लेते थे। कुल मिलाकर दोनों की दोस्ती गठबंधन की राजनीति की बड़ी सटीक मिसाल थी।
बहरहाल राज नर्तकी के स्क्रीन टेस्ट के लिए देवलोक के तमाम लीडिंग अखबारों में इश्तेहार दे दिए गए। स्क्रीनिंग कमेटी की कमान सौंपी गई उर्वशी, रंभा और मेनका को। चूंकि मेनका देवराज और सूर्यदेव दोनों की मुंह लगी थी, इसलिए उसे कमेटी की अध्यक्षता सौप दी गई। राजनर्तकी उर्वशी और रंभा बेचारी परेशान थीं। दोनों इस बात पर कुढ़े जा रही थी कि राज नर्तकी होने के बावजूद उनकी उपेक्षा की गई। लेकिन उनके पास कुढ़ने के अलावा कोई चारा नहीं था। दोनों पूर्व राजनर्तकी मेनका की पावर से वाकिफ थीं। इसलिए दोनों को डर था कि मेनका उनकी एक नहीं चलने देगी। वह स्क्रीन टेस्ट में सिर्फ अपनी उन चेलियों को ही मौका दिलवाएगी, जिन्हें वह अपने डांस स्कूल में ट्रेनिंग दे रही थी। ये भी किसी से छुपा नहीं था कि डांस स्कूल के लिए मेनका ने सरकारी जमीन और ग्रांट कैसे हासिल की थी। (जारी... अगले अंक में-- मेनका का डांस स्कूल)

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

कथा पुराण-- भाग-1.... भतीजे की बगावत


बात काफी पुरानी है। ईसा और मूसा से भी कई साल पुरानी। पूरब के संपन्न एवं समृद्ध देश ढक्कन राष्ट्र में ढक्कन वंश का शासन था। आधुनिक इतिहासकार उपहास उड़ाने के प्रयोजन से ढक्कन वंश को कोई छोटा-मौटा कबीला साबित कर सकते हैं, लेकिन असल में वो एक बहुत बड़ा साम्राज्य था। इतना बड़ा कि उसकी सीमाएं अगल-बगल के कई गांवों को छूती थी। ढक्कन राष्ट्र की हिफाजत के लिए काफी बड़ी ढक्कन सेना थी। सदियों पहले भी वहां राजा मां के पेट से पैदा नहीं होता था, बल्कि उसे जनता चुनती थी। लेकिन एक परंपरा बरसों से चली आ रही थी- कि ढक्कन वंश का राजा वही बनता था, जिस पर कुलगुरू की कृपा होती थी। कुलगुरू यानी पार्टी सुप्रीमो। कहने को तो पार्टी के पदाधिकारियों की सूची काफी लंबी थी, लेकिन सत्ता का सुख उसे ही नसीब होता था, जिसे कुलगुरू चाहते थे। ये और बात है कि कुलगुरू ना खूद कभी सिंहासन पर बैठे और ना ही अपने परिवार के किसी सदस्य को मंत्री परिषद् में शामिल होने दिया। ये बात उनके बेटे को भी कचोटती थी और भतीजे को भी। लेकिन दोनों में इतना साहस नहीं था कि कुलगुरू के समक्ष अपने ह्दय के उदगार व्यक्त कर पाते। बेचारों के दिल के अरमान दिल में ही दफन रहते। ऐसा नहीं था कि कुलगुरू उनकी ख्वाहिशों से वाकिफ नहीं थे। लेकिन वो धर्मसंकट में थे कि आखिर किसे प्रोमोट करें- बेटे को या भतीजे को... सो इसी उधेड़बुन में वह जब तब दोनों को यही सबक देते कि बच्चों सत्ता से बड़ा संगठन होता है। ढक्कन राष्ट्र में सबसे बड़ा ढक्कन वो नहीं है, जिसके हाथ में देश की बागडोर हो, बल्कि सबसे ढक्कन वही माना जाता है, जिसके हाथ में राजा की डोर होती है। इसलिए हे वत्स, तुम लोग राजा बनने की मत सोचो, किंगमेकर बनो, जैसे कि मैं हूं। तुम्हारा परम दायित्व यह है कि देश में ढक्कन वंश की सत्ता बरकरार रखने के लिए तुम क्या योगदान दे सकते हो। लोगों को मजहब के नाम पर लड़ाओ, इलाके और भाषा के नाम पर अराजकता फैलाओ और फिर उनके कृपा निधान बनकर उनकी तकलीफें सुनो। फैसले करो। ढक्कन वंश के दोनों युवराज दम साधे कुलगुरू की बातें सुन रहे थे। कुलगुरू ने कोई रहस्य खोलने के अंदाज में कहा- ढक्कन राष्ट्र में दो तरह के लोग हैं। पहले वो, जो यहां के मूल निवासी हैं और दूसरे वो, जो यहां व्यापार अथवा जीविकोपार्जन के उद्देश्य से सुदूर क्षेत्रों से आए हुए हैं। पहले वालों से हमें जनबल अथवा बाहुबल मिलता है और दूसरे वाले हमें धनबल देते हैं।
कुलगुरू ने आगे कहा- एक बात हमेशा याद रखना कि धनबल देकर वो हम पर कोई अहसान नहीं करते हैं, बल्कि ढक्कन राष्ट्र के अन्न. हवा और पानी के उपयोग का मूल्य चुकाते हैं। हमने बरसों की मेहनत और लगन से स्थानीय निवासियों और बाहरी लोगों को आपस में लड़ने की आदत डाली है। आशा है कि तुम दोनों भी कुल की परंपरा को इसी तरह आगे बढाते रहोगे। और हां, उनके विवादों का फैसला करते वक्त निष्पक्ष बनने का जोखिम कभी मत लेना...अपने लोगों का पक्ष लेना। इससे ढक्कन राष्ट्र के मूल निवासियों के ह्दय में इंसाफ के प्रति आस्था बनी रहेगी और बाकी लोगों के दिल में मिल-जुल कर रहने की भावना बलवती होगी। वो लोग तनिक भयभीत रहेंगे। ठीक वैसे, जैसे आग को पानी का भय बना रहता है। कहने का भाव यह है मेरे बच्चों कि भय में बड़ी शक्ति है। इस शक्ति को पहचानो और शासन के मूल मंत्र को समझो।
कुलगुरू ने कहा और दोनों युवराजों ने उनके मंत्र को मस्तिष्क में उतार लिया। इस पूरे वार्तालाप के दौरान कुलगुरू ने अपने चश्मे-चरागों को सत्ता और शासन से जुड़ी कई और बारीकियां बताईं, लेकिन वह उन्हें कुलदेवी के श्राप के बारे में बताना भूल गए। श्राप ये था कि ढक्कन वंश के वंशज दुनिया में भले ही आग लगाते फिरें, लेकिन वो यदि गलती से भी आपस में लड़े तो पहले सत्ता से हाथ धोना पड़ेगा और फिर ढक्कन सेना दोफाड़ हो जाएगी। होनी को भला कौन टाल सकता था। कुलगुरू को पुत्रमोह ने घेरा तो वो भतीजे की उपेक्षा कर बैठे। भतीजा कुछ दिन तो घुटता रहा, लेकिन एक दिन वह बगावत का झंडा लेकर सड़क पर उतर आया। उसने कसम खाई कि यदि उसे सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिली, तो वो ढक्कन वंश की ईंट से ईंट बजा देगा। कुलदेवी का श्राप सही निकला। पहले सत्ता का ह्लास हुआ, फिर ढक्कन सेना दोफाड़ हुई और अंतत ढक्कन वंश का नाश हो गया। लेकिन इसके बावजूद भतीजे की कसम पूरी नहीं हुई। तब से ढक्कन वंश का कुलगुरू, उसका बेटा और भतीजा हर युग में जन्म लेते हैं। अपने कुल की मर्यादा के अनुरूप दुनिया भर में आग लगाते हैं, जहां पैदा होते हैं-वहां स्थानीय और बाहरी लोगों के मुद्दे को हवा देकर सियासत करते हैं और फिर हमेशा की तरह आपस लड़-भिड़कर कट मरते हैं। इतिहास ने फिर करवट बदली है...इस बार ढक्कन वंश के कर्णाधारों ने मुंबई में अवतार लिया है.... कथा के तीनों किरदारों को आप पहचान तो गए ना...

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2008

कहानी मल्लिका की

ये कहानी है मल्लिका की। न..न..न बॉलीवुड सुंदरी मल्लिका की नहीं, गुनाह की मल्लिका की। मल्लिका यानी एक ऐसी औरत जिसके लिए शातिर, बेरहम, बेदर्द और जालिम जैसे शब्द भी हल्के लगते हैं। जुर्म की दुनिया में उसके जैसी दूसरी औरत की मिसाल अब तक नहीं मिली है। बैंगलोर (अब बैंगलुरू) की रहने वाली मल्लिका न कोई वक्त की मारी अबला है और न ही समाज की सताई बेबस औरत, कि जिसे मजबूरी में गुनाह का रास्ता अख्तियार करना पड़ा हो। बल्कि उसे गुनाहगार बनाया दौलत की हवस ने। थोड़े वक्त में ज्यादा दौलत कमाने के लालच ने मल्लिका को कहीं का नहीं छोड़ा।
करीब 12 साल पहले तक मल्लिका एक सीधी-सादी औरत थी। बैंगलोर के कगलीपुरा इलाके में वह अपने पति और बच्चों के साथ खुश थी। पति इतना तो कमा ही लेता था कि पूरे परिवार को दो वक्त की दाल-रोटी आराम से मिल जाती थी। लेकिन मल्लिका ऐशो-आराम की जिंदगी चाहती थी। और इसके लिए जरूरत थी दौलत की। रातों-रात दौलत कमाने के लिए उसने एक चिट फंड कंपनी शुरू कर दी। पति समेत पूरा परिवार इसके खिलाफ था, लेकिन मल्लिका जिद पर अड़ी थी। 1995 से 1998 तक उसने चिटफंड कंपनी चलाई। शुरू में तो सब ठीक-ठाक चला। उसके बाद चिट फंड कंपनी घाटे में आ गई और मल्लिका कर्ज में डूब गई। लोगों का कर्ज चुकाने के लिए मल्लिका अपने ही घर में चोरी करने लगी। बार-बार मना करने पर भी जब वह बाज नहीं आई, तो पति ने उसे घर से निकाल दिया।
उधर, लेनदार अपना पैसा वापस मांग रहे थे। लेकिन मल्लिका के पास उन्हें लौटाने के लिए फूटी कौड़ी भी नहीं थी। तब उसने एक खौफनाक रास्ता अख्तियार किया। रास्ता लूटपाट का। वो खुद एक औरत थी, लिहाजा उसने अपना टारगेट भी औरतों को ही बनाना शुरू कर दिया, उनमें ज्यादातर उम्रदराज औरतें शामिल थीं। वह पूजा-पाठ के बहाने बुजुर्ग औरतों को भरोसे में लेती और फिर मौका मिलते ही सायनाइड खिलाकर उसका काम-तमाम कर देती थी। जी हां, सायनाइड यानी ऐसा खतरनाक जहर, जो इंसान के अंदर जाते ही उसका दम बाहर कर देता है। शातिर मल्लिका जानती थी कि शिकार के जिंदा रहते लूटपाट मुमकिन नहीं, फिर वो गुनाह के बाद कोई सबूत नहीं छोड़ना चाहती थी। इसीलिए पहले वो हत्या करती थी और फिर लूटपाट करके गायब हो जाती थी।
करीब आठ साल पहले 1999 में उसने ममता नाम की एक महिला को अपना पहला शिकार बनाया। मल्लिका ने उसकी हत्या कर दी और उसके गहने बेचकर कुछ लोगों का कर्ज चुका दिया। कत्ल के महीनों बाद भी वो पकड़ी नहीं गई, तो उसका हौंसला बढ़ गया। दो साल बाद उसने पूजा-पाठ के बहाने एक परिवार को अपना निशाना बनाने की कोशिश की, लेकिन इस बार वो पकड़ी गई। मल्लिका को छह महीने की सजा हुई। जेल से छूटने के बाद कुछ दिन उसने घरों में नौकरानी का काम किया। लेकिन पैसों की किल्लत होते ही उसने फिर एक महिला की हत्या कर दी। मल्लिका ने एक के बाद एक करके चार कत्ल किए। लेकिन इस बार एक मोबाइल फोन ने उसे पुलिस के जाल में फंसा दिया। दरअसल एक महिला की हत्या के बाद वो उसका मोबाइल फोन भी अपने साथ ले गई और उसे बेचने के चक्कर में पुलिस की गिरफ्त में आ गई। फिलहाल मल्लिका ने छह औरतों को सायनाइड देकर मारने की बात कबूली है। लेकिन पुलिस को शक है कि यह फेहरिस्त और लंबी हो सकती है।