सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

ये कैसा लोकतंत्र?

जब देश में लोकतंत्र कायम हुआ-तो सुनते हैं कि बड़ा जश्न मनाया गया था। कहा गया था कि देश की तकदीर जनता के हाथों सौंप दी गई। जनता के शासन में सबसे सुप्रीम और सर्वोच्च जनता। राजतंत्र में परंपरा थी कि पहले देश का राजा मां की कोख से जन्म लेता था-लेकिन गणतंत्र में नई परंपरा शुरू हुई-देश का राजा मां की कोख से नहीं बल्कि बैलेट बॉक्स (मतपेटी) से पैदा होगा। वो राजा नहीं सेवक होगा। जनसेवक।लेकिन सिर्फ छह दशक में ही सारी परिभाषाएं-परंपराएं अपने मायने खोती प्रतीत हो रही हैं। जिस लोकतंत्र को देश की सबसे बड़ी उपलब्धि बताया गया था- उसी लोकतंत्र को कुछ लोगों ने राजशाही का जरिया बना लिया है।जेहन में सवाल उठता है कि आखिर अपने देश में ये कैसा लोकतंत्र है...?लोकतंत्र के नाम पर कुछ नेता किस तरह का सिस्टम खड़ा कर रहे हैं?देश की सबसे बड़ी और प्राचीन पार्टी में मां और बेटा 'हाईकमांड' हैं। मानो वो दोनों किसी लोकतंत्रिक पार्टी के नेता नहीं-बल्कि महारानी और युवराज हों। चाटूकार मंत्री सरेआम धमकी देते हैं युवराज चाहें तो आधी रात को भी प्रधानमंत्री बन सकते हैं। तो क्या देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी सिर्फ मां-बेटे की अनुकंपा पर ही सलामत है?उस मंत्री को ऐसी कौन सी शक्ति हासिल है-जो वो अपने बॉस को खुलेआम कमजोर बताकर खिल्ली उड़ाता है-और उसका बाल भी बांका नहीं हो पाता?क्या यही लोकतंत्र है?एक सूबा (पंजाब) ऐसा है जहां बाप-बेटे की जोड़ी बादल एंड सन्स किसी कॉर्पोरेट कंपनी की तरह सरकार चलाते हैं। घर की औरत सबसे बड़ी पंचायत में नुमाइंदगी करती है। उन्हें सत्ता से बेदखल करने के लिए बाप-बेटे की एक और जोड़ी मैदान में है। (मां पहले ही संसद में मौजूद है-चाचा को टिकट नहीं मिली इसलिए पार्टी छोड़कर बादल एंड सन्स के साथ हो लिए)जाहिर है पटियाला का राजपरिवार लोकतंत्र की उंगली पकड़कर राजशाही चला रहा है।कमोबेश यही मॉडल पंजाब से पड़ोसी हरियाणा में लागू है। वहां भी सात साल पहले तक चौटाला परिवार का शासन था। अब जो सीएम हैं-वो अपने बेटे को सियासत की एबीसीडी सिखा रहे हैं। बल्कि काफी कुछ सिखा चुके हैं। दिल्ली में भी मम्मी सीएम हैं-और बेटा एमपी।यूपी में मुलायम-अखिलेश यादव, शिवपाल सिंह यादव। अजित सिंह-जयंत चौधरी- अपनी-अपनी पार्टी के सुप्रीमो बने बैठे हैं। कांग्रेस के कई नेता--(जो केंद्र में मंत्री हैं)-अपने नौनिहालों के लिए टिकट की मारामारी कर चुके हैं। जिनके बेटों को टिकट मिल गई वो पूरी ताकत के साथ पार्टी के प्रचार में जुटे हैं। जिन्हें टिकट नहीं मिल पाई-वो पार्टी कैंडिडेट को सबक सिखाने का मौका तलाश रहे हैं।बेटे-भाई-भतीजे- और रिश्तेदारों की टिकट कटने पर बीजेपी (पीर्टी विद ए डिफरेंस)का भी भीतरघात दुनिया के सामने आ चुका है। जिन्हें अपनी शर्तों पर टिकट मिल गई वो पार्टी का सिपाही- जो पीछे रह गया वो बागी हो गया।और हां, दक्षिण भारत के सबसे बड़े क्षत्रप को कोई कैसे भूल सकता है। उनके परिवार में कुल कितने सदस्य हैं-ये तो वो खुद भी नहीं जानते होंगे--(आखिर बढ़ती उम्र और यादाश्त की सीमा है) लेकिन एक बात पूरा देश जानता है कि घर में सारे के सारे नेता हैं। जब उनकी फैमिली पार्टी सत्ता में होती है तो कोई सूबे में धाक जमाता है-तो किसी की धाक दिल्ली तक नजर आती है।सवाल फिर वही- ये कैसा लोकतंत्र है?कहने वाले कह सकते हैं कि इनमें से कोई भी नेता तानाशाह नहीं है। परिवारवाद के पोषक सभी नेता जनता की ताकत पर सियासत में टिके हैं। जनता वोट से चुनकर उन्हें और उनके बेटे-पोतों-भाई-भतीजों-रिश्तेदारों को सदन में भेजती है। लेकिन दलील देने वाले भी अच्छी तरह जानते हैं कि जिनके हाथ में सियासत की ताकत है उनके लिए चुनाव सिर्फ जोर आजमाइश का खेल है। और जोर आजमाने का हुनर उन्हें बखूबी आता है। बात सिर्फ मौके की है। जब तक सेर को सवा सेर नहीं टकरा जाता तब तक जनता भी उनकी ताकत को लोहा मानने पर मजबूर होती है।

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