हाल ही में रोहतक में एक फिल्म फेस्टिवल चल रहा था। सुनते हैं कि कई अच्छी फिल्में दिखाई गईं। बदकिस्मती से मुझे वहां जाने का मौका तो नहीं मिला-हां अखबारों और फेसबुक जैसी सोशल मीडिया से जो खबरें मिलीं-उसके मुताबिक खाप फिल्म दिखाए जाने को लेकर वहां काफी विवाद छाया रहा। खाप पंचायत प्रतिनिधियों के विरोध की वजह से मामला गर्मागर्म बहस तक पहुंच गया। पंचायत प्रतिनिधियों को अपना नजरिया समझाने के लिए फिल्म खाप के डायरेक्टर अजय सिन्हा को काफी मशक्कत करनी पड़ी। फिल्म की विषय-वस्तु पर खुली चर्चा भी हुई। जाहिर पूरी चर्चा फिल्म की विषय वस्तु और खाप पंचायतों के चित्रण के इर्द-गिर्द ही घूम रही थी। लेकिन इस चर्चा की छाया में शायद ये मसला कहीं छुप गया कि फिल्म बनी कैसी है-और फिल्म बनाने वाले को खाप पंचायतों के बारे में जानकारी और समझ कितनी है।मैं ये फिल्म देखी है। मेरी राय में फिल्म खाप ऑनर किलिंग (जिसे अब हॉरर किलिंग कहा जाने लगा है) जैसे ज्वलंत मुद्दे पर आधारित जरूर है-लेकिन असलियत से कोसों दूर है। पिछले कुछ दिनों में ऑनर किलिंग यानी इज्जत के लिए कत्ल की जितनी भी वारदात हुई उनमें हरियाणा, दिल्ली या फिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसी गांव की कहानी सामने आती है।
फिल्म खाप की कहानी में भी एक गांव है-लेकिन वो गांव हरियाणा या पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों जैसा गांव नहीं है। कहानी में दिल्ली का भी जिक्र है-लेकिन वो दिल्ली देहात का भी कोई गांव नहीं है। वो पूरी तरह फिल्मी गांव है। कहानी भी फिल्मी मसालों वाली है। लड़का-लड़की ने प्यार किया-जमाना उनकी मुहब्बत का दुश्मन हो गया-शादी के सवाल पर तलवारें खिंच गई। इसमें भला क्या नया है।फिल्म बॉबी से लेकर लव स्टोरी तक ऐसी ही प्रेम कहानियां कई बार फिल्मी पर्दे पर देखी जा चुकी हैं। फिल्मी तड़के के साथ एक यंग लव स्टोरी-कॉलेज लाइफ, नाच-गाना और फिर एक्शन पैक्ड हंगामा। फर्क सिर्फ इतना है कि बॉबी जैसी फिल्मों में प्रेमी और प्रेमिका के बीच दौलत की खाई थी-और खाप के नाम पर रचे गए इस तमाशे में जाति और गोत्र की दीवार दिखाई गई है।लेकिन बगैर ये जाने कि असल जिंदगी के गांवों का सामाजिक ताना-बाना क्या होता है? बगैर ये समझे कि एक ही गांव में रहने वाले लड़के-लड़की के बीच शादी क्यों वर्जित होती है ? और बगैर ये बुनियादी जानकारी जुटाए, कि हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश या दिल्ली देहात के गांवों में एक ही गोत्र में शादी का विरोध क्यों किया जाता है?
अगर डायरेक्टर ने इन सवालों के जवाब जानने के लिए रिसर्च की होती-तो मुमकिन था कि कोई गंभीर और सार्थक फिल्म बन जाती। तब हो सकता था कि फिल्म खाप-सही मायनों में अपने नाम के साथ न्याय कर पाती। जो फिल्म अजय सिन्हा ने बनाई है-उसका नाम भले ही खाप है-असल में उसका खाप पंचायत या किसी पंचायती परंपरा के वास्तविक चित्रण से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसी सतही फिल्म बनाकर डायरेक्टर साहब ये दावा नहीं कर सकते हैं कि उन्होंने खाप पंचायतों पर फिल्म बनाई है। ये एक साधारण मुंबईया मसाला फिल्म है-जो किसी गांव या देहात की पृष्ठभूमि पर आधारित है।वो एक ऐसा गांव है-जहां खाप का प्रधान परंपरा और खानदान की इज्जत के नाम पर कत्ल का फरमान सुनाता है। पुलिस भी गांव के प्रधान से डरती है। हरियाणा, दिल्ली या यूपी में तो किसी गांव या खाप का प्रधान इतना पावरफुल नहीं है।डायरेक्टर ने या तो किसी से सुन लिया होगा-य़ा फिर अखबार में पढ़ लिया होगा कि खाप पंचायतें प्रेमी जोड़े की हत्या का फरमान सुनाती हैं।लेकिन असल में ऑनर किलिंग का शायद ही कोई केस ऐसा होगा-जिसमें किसी गांव या खाप की पंचायत अदालत लगाकर बैठी हो-भरी पंचायत में प्रेमी जोड़े की हत्या का फैसला हुआ हो-या फिर पंचायत में किसी प्रेमी जोड़े को सीधे फांसी पर लटका दिया गया हो।
ऑनर किलिंग के ज्यादातर मामलों में लड़के या लड़की का अपना परिवार उनकी जान का दुश्मन बन जाता है। बहाना भले ही खानदान की इज्जत का होता है-लेकिन गुस्से की असली वजह ये होती है कि आखिर घर की बेटी ने उनकी मर्जी के खिलाफ लवमैरिज की हिम्मत कैसे की। प्रेमी जोड़ों पर ऐसा गुस्सा सिर्फ गोत्र विवाद में ही नहीं-बल्कि इंटर कास्ट मैरिज करने वालों पर भी नाजिल होता है। वजह अलग-लेकिन सजा एक-सिर्फ मौत। जाहिर है ऐसी सजा सिर्फ और सिर्फ कातिलों का गैंग ही तय कर सकता है। खाप पंचायतों के प्रतिनिधि ऐसे खौफनाक फैसले नहीं ले सकते।मेरी राय खाप फिल्म का ऑनर किलिंग की मूल वजह से कोई लेना-देना नहीं है। मुझे लगता है कि डायरेक्टर ने जाति-गोत्र और सामाजिक परिवेश पर रिसर्च किए बगैर बेहद सतही फिल्म बनाई है। अजय सिन्हा ने ये तक जानने की कोशिश नहीं कि 'खाप' किसी गांव की पंचायत नहीं होती-बल्कि खाप का दायरा बेहद विस्तृत होता है। वैसे भी खाप की पंचायतों में एक ही गांव के चार-पांच लोग बैठकर फैसले नहीं लेते- अगर अजय सिन्हा या उनकी प्रोडक्शन टीम ने किसी खाप पंचायत का आयोजन देख लिया होता-तो फिल्म में थोड़ी बहुत गंभीरता और गहराई आ जाती। एक दर्शक के नाते मेरी व्यक्तिगत राय है कि इस फिल्म में सिर्फ मसालों का ख्याल रखा गया-गोत्र विवाद की मूल वजह को समझने की कोशिश इसमें नजर नहीं आती। अगर डायरेक्टर साहब खाप पंचायत का मतलब समझ लेते तो बेहतर फिल्म बन सकती थी।
फिल्म खाप की कहानी में भी एक गांव है-लेकिन वो गांव हरियाणा या पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों जैसा गांव नहीं है। कहानी में दिल्ली का भी जिक्र है-लेकिन वो दिल्ली देहात का भी कोई गांव नहीं है। वो पूरी तरह फिल्मी गांव है। कहानी भी फिल्मी मसालों वाली है। लड़का-लड़की ने प्यार किया-जमाना उनकी मुहब्बत का दुश्मन हो गया-शादी के सवाल पर तलवारें खिंच गई। इसमें भला क्या नया है।फिल्म बॉबी से लेकर लव स्टोरी तक ऐसी ही प्रेम कहानियां कई बार फिल्मी पर्दे पर देखी जा चुकी हैं। फिल्मी तड़के के साथ एक यंग लव स्टोरी-कॉलेज लाइफ, नाच-गाना और फिर एक्शन पैक्ड हंगामा। फर्क सिर्फ इतना है कि बॉबी जैसी फिल्मों में प्रेमी और प्रेमिका के बीच दौलत की खाई थी-और खाप के नाम पर रचे गए इस तमाशे में जाति और गोत्र की दीवार दिखाई गई है।लेकिन बगैर ये जाने कि असल जिंदगी के गांवों का सामाजिक ताना-बाना क्या होता है? बगैर ये समझे कि एक ही गांव में रहने वाले लड़के-लड़की के बीच शादी क्यों वर्जित होती है ? और बगैर ये बुनियादी जानकारी जुटाए, कि हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश या दिल्ली देहात के गांवों में एक ही गोत्र में शादी का विरोध क्यों किया जाता है?
अगर डायरेक्टर ने इन सवालों के जवाब जानने के लिए रिसर्च की होती-तो मुमकिन था कि कोई गंभीर और सार्थक फिल्म बन जाती। तब हो सकता था कि फिल्म खाप-सही मायनों में अपने नाम के साथ न्याय कर पाती। जो फिल्म अजय सिन्हा ने बनाई है-उसका नाम भले ही खाप है-असल में उसका खाप पंचायत या किसी पंचायती परंपरा के वास्तविक चित्रण से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसी सतही फिल्म बनाकर डायरेक्टर साहब ये दावा नहीं कर सकते हैं कि उन्होंने खाप पंचायतों पर फिल्म बनाई है। ये एक साधारण मुंबईया मसाला फिल्म है-जो किसी गांव या देहात की पृष्ठभूमि पर आधारित है।वो एक ऐसा गांव है-जहां खाप का प्रधान परंपरा और खानदान की इज्जत के नाम पर कत्ल का फरमान सुनाता है। पुलिस भी गांव के प्रधान से डरती है। हरियाणा, दिल्ली या यूपी में तो किसी गांव या खाप का प्रधान इतना पावरफुल नहीं है।डायरेक्टर ने या तो किसी से सुन लिया होगा-य़ा फिर अखबार में पढ़ लिया होगा कि खाप पंचायतें प्रेमी जोड़े की हत्या का फरमान सुनाती हैं।लेकिन असल में ऑनर किलिंग का शायद ही कोई केस ऐसा होगा-जिसमें किसी गांव या खाप की पंचायत अदालत लगाकर बैठी हो-भरी पंचायत में प्रेमी जोड़े की हत्या का फैसला हुआ हो-या फिर पंचायत में किसी प्रेमी जोड़े को सीधे फांसी पर लटका दिया गया हो।
ऑनर किलिंग के ज्यादातर मामलों में लड़के या लड़की का अपना परिवार उनकी जान का दुश्मन बन जाता है। बहाना भले ही खानदान की इज्जत का होता है-लेकिन गुस्से की असली वजह ये होती है कि आखिर घर की बेटी ने उनकी मर्जी के खिलाफ लवमैरिज की हिम्मत कैसे की। प्रेमी जोड़ों पर ऐसा गुस्सा सिर्फ गोत्र विवाद में ही नहीं-बल्कि इंटर कास्ट मैरिज करने वालों पर भी नाजिल होता है। वजह अलग-लेकिन सजा एक-सिर्फ मौत। जाहिर है ऐसी सजा सिर्फ और सिर्फ कातिलों का गैंग ही तय कर सकता है। खाप पंचायतों के प्रतिनिधि ऐसे खौफनाक फैसले नहीं ले सकते।मेरी राय खाप फिल्म का ऑनर किलिंग की मूल वजह से कोई लेना-देना नहीं है। मुझे लगता है कि डायरेक्टर ने जाति-गोत्र और सामाजिक परिवेश पर रिसर्च किए बगैर बेहद सतही फिल्म बनाई है। अजय सिन्हा ने ये तक जानने की कोशिश नहीं कि 'खाप' किसी गांव की पंचायत नहीं होती-बल्कि खाप का दायरा बेहद विस्तृत होता है। वैसे भी खाप की पंचायतों में एक ही गांव के चार-पांच लोग बैठकर फैसले नहीं लेते- अगर अजय सिन्हा या उनकी प्रोडक्शन टीम ने किसी खाप पंचायत का आयोजन देख लिया होता-तो फिल्म में थोड़ी बहुत गंभीरता और गहराई आ जाती। एक दर्शक के नाते मेरी व्यक्तिगत राय है कि इस फिल्म में सिर्फ मसालों का ख्याल रखा गया-गोत्र विवाद की मूल वजह को समझने की कोशिश इसमें नजर नहीं आती। अगर डायरेक्टर साहब खाप पंचायत का मतलब समझ लेते तो बेहतर फिल्म बन सकती थी।